(उत्तराखण्ड में स्थानीय भाषाओं को लेकर एक नई बहस शुरू हुई है। स्थानीय जरूरतों और विकास के लिए इसको प्रोत्साहन देने की टुकड़ों में बातें होती रही हैं। राज्य में बोली जाने वाली मुख्यत: तीन बोलियों कुमाऊंनी, गढ़वाली और जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात भी उठती रही है। मेरा पहाड़ इस हेतु लगातार प्रयास करता रहा है, इन दिनों नई दिल्ली से प्रकाशित ‘जनपक्ष आजकल’ द्वारा इसे लोक भाषा अभियान के रूप में चलाया जा रहा है, जिसे हम साभार मेरा पहाड़ में प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली कड़ी में हिन्दी साहित्य के सुपरिचित रचनाकार डॉ. लक्ष्मण सिंह बिष्ट ‘बटरोही’ का लेख दिया जा रहा है।)
जब ग्यारह साल पहले अलग पहाड़ी राज्य के रूप में उत्तराखण्ड का गठन किया गया तो इसकी भौगोलिक और सांस्कृति विशेषताओं के आधार पर राज्य के कुछ प्रतीक चुने गये। प्रतीक इसलिए चुने जाते हैं कि राज्य का अपना एक अलग और खास चरित्र उभर सके। इसी आधार पर उत्तराखण्ड में राजकीय पुष्प के रूप में समुद्र सतह से साढ़े तीन-साढ़े चार हजार मीटर की ऊंचाई पर हिमालय के बुग्यालों में उगने वाले दुर्लभ ब्रह्म कमल को, राजकीय पशु के रूप में ढाई हजार मीटर की ऊंचाई पर पाये जाने वाले कस्तूरी मृग को, राजकीय पक्षी के रूप में उसी ऊंचाई पर पाये जाने वाले मोनाल को और राजकीय वृक्ष के रूप में पांच हजार से ग्यारह हजार फीट की ऊंचाई पर पाये जाने बुरूंश को चुना गया। ये सारे प्रतीक भारत की बहु-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के बीच एक अलग तरह की पहाड़ी पहचान को ध्यान में रखकर चुने गये थे। प्रतीकों के अलावा हर राज्य की अपनी राजभाषा भी होती है जिसे राज्य के लोगों द्वारा संपर्क और सरकारी कार्यों के लिए लगातार प्रयोग की जाने वाली भाषा के रूप में चुना जाता है। उत्तराखण्ड की राजभाषा हिंदी है, जो भारत की राष्ट्रभाषा भी है। पिछले साल प्रदेश की भाजपा सरकार ने राज्य की दूसरी राजभाषा के रूप में संस्कृत को मान्यता दी और इसे एक अभूतपूर्व निर्णय के रूप में प्रचारित करते हुए सभी सरकारी दफ्तरों के निर्देशों और सूचना पट्टिकाओं का संस्कृत में लिखा जाना अनिवार्य कर दिया।
प्राकृतिक आपदा की मार झेल रहे उत्तराखण्ड के लोगों का इस ओर ध्यान भी न जाता, अगर पिछले महीने सरकार ने यहां की राज्य स्तरीय परीक्षाओं में स्थानीय भाषाओं की अनिवार्यता को खत्म न किया होता। हुआ यह था कि राज्य बनने के बाद जब यहां की लोक सेवाओं के लिये पाठ्यक्रम बनाया जाने लगा, तब प्रदेश के प्रशासकों के लिए स्थानीय भाषा और संस्कृति की जानकारी देने के उद्देश्य से हर विषय में कुछ ऐसे सवाल शामिल किये गये, जिनके जरिये प्रदेश के बारे में उनकी जानकारी का पता लग सके। मगर दो-एक बार की परीक्षाओं के बाद दिखायी दिया कि परीक्षा की इस प्रणाली से स्थानीय युवाओं को कोई फायदा नहीं हुआ। इसके पीछे शायद यह कारण रहा हो कि ये प्रश्न सैद्धांतिक थे, इसलिए अधिकतर बाहर के लोग ही चुनकर आने लगे। स्थानीय युवाओं ने इस पर आपत्ति दर्ज की और उत्तराखण्ड की लोकभाषाओं के व्यावहारिक ज्ञान को इसमें शामिल करने की मांग की। राज्य लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में बिना विधेयक पारित किये इस तरह का बदलाव ला पाना संभव नहीं था, मगर युवाओं की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए सूबे की ऐसी नौकरियों का एक अलग समूह बनाया गया, जिनका संबंध आम आदमी से अधिक पड़ता है। इसे नाम दिया गया समूह ‘ग’ और इनकी परीक्षाओं को राज्य लोक सेवा आयोग की परिधि से अलग रखा गया। उत्तराखण्ड में अनेक लोकभाषायें बोली जाती हैं, सभी को इसमें शामिल कर पाना न तो संभव था और न ही व्यावहारिक। इसलिए समूह ‘ग’ की परीक्षाओं के लिए कुमाऊंनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषाओं का ज्ञान अनिवार्य कर दिया गया।
सरकार के इस निर्णय का उत्तराखण्ड के मैदानी हिस्सों में विरोध होने लगा और प्रदेश के पर्यटन मंत्री ने इसे विधानसभा में चर्चा के लिए पेश कर दिया। यही नहीं, आवास विकास परिषद के अध्यक्ष ने मुख्यमंत्री को भेजे अपने पत्र में स्थानीय बोलियों की अनिवार्यता से सामाजिक समरसता के बिगडऩे का अंदेशा जताया। कुछ युवाओं ने इस निर्णय को राज ठाकरे के नक्शे-कदम पर चलने वाला बताते हुए जगह-जगह सरकार के पुतले फूंके। आखिरकार सात दिसंबर २०१० को प्रदेश के मुख्य सचिव को कहना पड़ा कि ‘शासनादेश गलत जारी हो गया था, उसे वापस लेकर आवश्यक संशोधन के निर्देश दे दिये गये हैं। सरकार का यह निर्णय शायद पूरी दुनिया में अकेला होगा जब कोई राज्य अपने बाशिंदों से कह रहा हो कि उन्हें अपनी जुबान बोलने की अनिवार्यता नहीं है। हालांकि पूरे देश के स्तर पर देखें तो हालत इससे अलग नहीं है। भारत के किसी भी कोने में आप साक्षात्कार दे रहे हों और आप अंग्रेजी जानते हैं तो कोई वहां यह पूछने वाला नहीं है कि आपकी कोई अपनी भाषा भी है। यही नहीं, अगर आप अपनी मातृभाषा नहीं बोल सकते या गलत बोलते हैं तो यह आपकी अयोग्यता कतई नहीं मानी जायेगी और ऐसा शिक्षित समाज सिर्फ इसी देश में संभव है।
यह बात कुछ हद तक समझ में आ सकती है कि अंतरराष्ट्रीय भाषा में अंग्रेजी के आकर्षण और भारत के बहुभाषी चरित्र के कारण प्रांतीय भाषाओं के प्रति आम भारतीयों का मोह न दिखायी देता हो,(हालांकि इसे क्षम्य नहीं कहा जा सकता) मगर संसार की किसी भी जिंदा कौम में अपनी मातृभाषा के प्रति अरुचि हो, ऐसा संभव नहीं है। जहां तक उत्तराखण्ड का प्रश्न है, वहां एक करोड़ से भी कम आबादी वाले क्षेत्र में करीब एक दर्जन ऐसी भाषायें बोली जाती हैं, जिनकी स्थानापन्न हिंदी में नहीं हैं। दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में कुमाऊंनी, गढ़वाली, जौनसारी, जौनपुरी, बुक्सा, थरुआटी, रं (भोटिया भाषा), राजी (वनरौतों की भाषा) भाषी लोग तो शताब्दियों से इस इलाके में रहते आ रहे हैं और वे दूसरी कोई भाषा नहीं जानते, हालांकि संपर्क भाषा के रूप में वे मिली-जुली पहाड़ी भाषा का प्रयोग करते हैं। इनके अलावा बाहर से आयी हुई जातियां हैं जिनकी निजी भाषायें हैं। हालांकि उनके बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी है। राज्य बनने के बाद इन बोली-भाषाओं से जुड़े लोगों की यह इच्छा स्वाभाविक है कि उन्हें अपनी पहचान मिले और यह उन्हें दूसरी राजभाषा की पहचान के रूप में आसानी से प्राप्त हो सकती है। उनकी अपनी भाषाओं का हक मारकर वह अधिकार संस्कृत को दिया जाना किसी भी तरह न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। संस्कृत कभी भी भारत से आम लोगों की भाषा नहीं रही है। उत्तराखण्ड के लगभग बंद समाज की भाषा होने का तो प्रश्न ही नहीं है। यहां के प्रमुख तीर्थस्थानों बदरीनाथ, केदारनाथ आदि के पुरोहितों केप्त लिए बसाये गये दो-एक गांवों को छोड़ दें तो संस्कृत कहीं भी सामूहिक रूप से नहीं बोली जाती। इन गांवों में भी पुरोहिती कर्म के अलावा बाकी कार्यों के लिए क्षेत्रीय भाषा का ही प्रयोग किया जाता है।
भारत में संस्कृत का चरित्र सांप्रदायिक भाषा का बनता चला जा रहा है। शायद इसीलिए यह भाजपा के एजेंडे में शामिल है। साहित्य की भाषा के रूप में संस्कृत समृद्ध ही नहीं, संसार की श्रेष्ठतम भाषाओं में से एक है, मगर आम लोगों के बीच उसकी उपयोगिता कर्मकांड की भाषा के रूप में रह गयी है। भारत जैसे विकासशील समाज के लिए कर्मकांड जैसे सांप्रदायिक पाठ की क्या उपयोगिता है, इसके समर्थन में सिर्फ अंधविश्वासी व्यक्ति तर्क दे सकता है। जिस समाज में दो-तिहाई से अधिक लोगों को दो जून का भरपेट खाना उपलब्ध न हो, उन्हें पंडों की भाषा परोसना सांप्रदायिक हिंसा नहीं तो और क्या है? यह एक संभावनाशील, मगर विपन्न समाज के हाथों से उसके मुंह का कौर छीनना कहा जायेगा। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि जहां एक ओर सरकार संस्कृत को राज्य की दूसरी राजभाषा घोषित करने का विधेयक पारित कर रही है, गांव-कस्बों में कोने-कोने में अपनी प्रचार सामग्री संस्कृत भाषा में परोसने का संकल्प दोहरा रही है, वहीं दूसरी ओर राज्यभर में शिक्षित जनता अपने मोबाइलों, ईमेल या पत्र-पत्रिकाओं द्वारा एक दूसरे को यह संदेश भेज रही है कि ‘आगामी जनगणना में अपनी मातृभाषा के रूप में गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी आदि लिखें।’ यह चेतना इन दिनों उत्तराखण्डवासियों में एक विस्फोट की तरह दिखायी देने लगी है, चाहे वे क्षेत्र में रहने वाले लोग हों या प्रवासी उत्तराखण्डी। यहां की भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग भी सिर उठा चुकी है। वर्ष २००३ से २००७ तक उत्तराखण्ड के प्रतिनिधि के रूप में मैं साहित्य अकादेमी का सदस्य था, तब भी यह मांग उठायी जाती रही थी। अकादेमी का कहना था कि आठवीं अनुसूची में उत्तराखण्ड जैसे छोटे प्रदेश की किसी एक भाषा को शामिल करने पर विचार किया जा सकता है, संभव है कि इस प्रक्रिया में यहां की एक मिश्रित भाषा का उदय हो जाये, मगर यह क्या कम है कि लोगों में अपनी जड़ों से जुडऩे का जज्बा पैदा हो रहा है और यह भी क्या छोटी बात है कि उनमें यह विवेक पैदा हो सका है कि उनकी जड़ें संस्कृत में नहीं, लोकभाषाओं में हैं। पिछले दिनों यही मांग संसद में सतपाल महाराज ने उठायी थी, जिसका पूरे प्रदेश में जबर्दस्त स्वागत हुआ था। भाजपा के निवर्तमान और वर्तमान दोनों मुख्यमंत्रियों के साथ पुरोहितों द्वारा इस मांग के रास्ते में अनेक रुकावटें डाली जाती रही हैं, मगर इसे रोक पाना संभव नहीं लगता। यह मांग एक ऐसे आंदोलन की शक्ल लेती जा रही है जिसका उद्देश्य मांग की पूर्ति नहीं, जनजागरण है। और यही किसी सच्चे आंदोलन की सही शक्ल है।
राजनीतिक नजरिये से देखें तो लगता नहीं कि संस्कृत को राज्य की दूसरी राजभाषा बना देने से सत्ताधारी दल को कोई लाभ पहुंच सकेगा। आम लोग इसे आधे वोट बैंक और आधे जातिबैंक के रूप में देख रहे हैं। जातिवादी गणित के हिसाब से भी यह घाटे का सौदा है, क्योंकि पुरोहिती करने वाली जाति के अधिकतर लोग न केवल संस्कृत से कट गये हैं, बल्कि वे अब अपने समाज के लिए भी उसकी कोई उपयोगिता नहीं समझते। लोगो का यह कयास भी अनायास नहीं है कि इसके जरिये समाज का उच्च वर्ण सरकारी आरक्षण के समानान्तर अपने लिए पिछले दरवाजे से आरक्षण पैदा कर रहा है। पिछले दिनों उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति का वक्तव्य था कि संस्कृत के जरिये वे धार्मिक पर्यटन की असीम संभावनाओं पर विचार कर रहे हैं। उनके अनुसार वे जल्दी ही ज्योतिष, वैदिक संस्कृत और कर्मकांड का एक भारी पैकेज शुरू करने जा रहे हैं, जिससे युवाओं को जबर्दस्त रोजगार मिलेगा। मगर क्या हिंदू-बहुल उत्तराखण्डी समाज में यह संभव हो सकेगा कि यहां की औरतें मंदिरों में पाठ पढऩे के लिए गैर ब्राह्मण पुरोहितों, विशेषज्ञ रूप से दलित पुरोहितों को दक्षिणा भेंट करने का साहस जुटा पायेंगी। भले ही उन्होंने कर्मकांड में डिप्लोमा लिया होगा। दूसरी राजभाषा के रूप में संस्कृत को थोपने और इसी बहाने उत्तराखण्ड के आम लोगों को अपनी जड़ों से काटने का यह सिलसिला सत्ताधारी दल को लाभ तो क्या पहुंचा पायेगा, कहीं ऐसा न हो कि यह निर्णय उनके अस्तित्व के लिए ही संकट बन जाये।
[…] ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान का प्रश्नस्थानीय बनाम व्यावहारिक भाषाशैलनट की कार्यशाला रुद्रपुर मेंएक […]
[…] ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान का प्रश्नस्थानीय बनाम व्यावहारिक भाषाशैलनट की कार्यशाला रुद्रपुर मेंएक […]
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[…] ही नहीं, सांस्कृतिक पहचान का प्रश्नस्थानीय बनाम व्यावहारिक भाषाशैलनट की कार्यशाला रुद्रपुर मेंएक […]
[…] कर रहे हैं। इसकी पहली कड़ी में आप लक्ष्मण सिंह बिष्ट “बटरोही’ जी का लेख , दूसरी कड़ी में बद्रीदत्त कसनियाल का […]