(उत्तराखण्ड में स्थानीय भाषाओं को लेकर एक नई बहस शुरू हुई है। स्थानीय जरूरतों और विकास के लिए इसको प्रोत्साहन देने की टुकड़ों में बातें होती रही हैं। राज्य में बोली जाने वाली मुख्यत: तीन बोलियों कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात भी उठती रही है। इन दिनों नई दिल्ली से प्रकाशित ‘जनपक्ष आजकल’ पत्रिका द्वारा इसे लोक भाषा अभियान के रूप में चलाया जा रहा है, जिसे हम साभार यहां पर प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली कड़ी में आप लक्ष्मण सिंह बिष्ट “बटरोही’ जी का लेख तथा दूसरी कड़ी में बद्रीदत्त कसनियाल का लेख पढ़ चुके हैं। इसकी तीसरी कड़ी में प्रख्यात भाषाविद श्री भगवती प्रसाद नौटियाल का लेख प्रस्तुत है।)
काफी अरसे से यह सुना जा रहा है कि गढ़वाली भाषा की अपनी कोई लिपि नहीं है और यदि अपनी लिपि होती तो गढ़वाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में बहुत पहले ही स्थान प्राप्त हो जाता। ऐसा नहीं है कि इस प्रकार की सोच आम गढ़वाली की ही है, बल्कि कुछ बुद्धिजीवी भी ऐसी सोच रखते हैं और बड़ी हैरानी होती है। उनके मुखारविन्द से इस प्रकार की सोच को सुनकर। बल्कि कभी-कभी तो उनके इस अविवेक पर तरस भी आता है। कुछ वर्ष पूर्व एक पंजाबी सज्जन ने घोषित कर दिया था कि उसने गढ़वाली की लिपि बना दी है और उसके चहेतों ने उसे राज्यपाल के दरबार में खड़ा करके उसको लिपि बनाने के लिए सम्मानित भी करवा दिया था। इस प्रकरण पर काफी बबाल पैदा हुआ। भाषा विज्ञान के विद्वानों ने इसकी भर्त्सना की। ‘अखिल गढ़वाल सभा’ के सदस्यों का एक शिष्टमण्डल तत्कालीन राज्यपाल महोदय से मिला तथा इन पंक्तियों के लेखक और राजेन्द्र सिंह रावत, पूर्व निदेशक, भाषा, केन्द्रीय गृह मंत्रालय, दिल्ली ने राज्यपाल के नाम खुला पत्र लिखकर यह स्पष्ट किया था कि लिपि बनाना निबन्ध लिखने जैसा कार्य नहीं है।
यह एक वैज्ञानिक पद्धति है जिसे बनाने और कार्यान्वित करने में वर्ष नहीं सदियां लगती है। भाषा विज्ञानी और व्याकरणाचार्य ही मिल बैठ किसी भी भाषा के लिए लिपि बनाने पर विचार-विमर्श करते हैं। लिपि कला का नहीं विज्ञान का विषय है। लिपि की सार्थकता पर वर्षों तक मंथन होता रहता है। मानव ने भाषिक अभिव्यक्ति को देश और काल की सीमा से मुक्त कर सार्वकालिक एवं सार्वभौमिक बनाने के लिए लिपि बनायी नहीं, बल्कि उसका आविष्कार किया। कोई भी भाषा न्यूनाधिक रूप में किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है। इस पर भी भाषाई प्रकृति और ध्वनियों को सर्वोत्तम एवं वैज्ञानिक ढंग से व्यक्त करने के लिए प्रत्येक भाषा-भाषी किसी न किसी रूप में लिपि को विकसित करता है। अक्सर यह लिपि उसे परम्परा से प्राप्त होती है। क्योंकि कोई भी भाषा-भाषी डंडे की चोट पर यह नहीं कह सकता कि हमारी भाषा की लिपि को अमुक व्यक्ति ने बनाया है। लिपि तो एक आविष्कार है जो विद्वानों की अनेक वर्षों के श्रम एवं गवेषणा का फल होती है। समय-समय पर इसमें यथावश्यक परिवर्तन होते रहते हैं- जैसे देवनागरी लिपि में अभी लगभग ५०-६० वर्ष पूर्व तक हम आज के अ को ई इस प्रकार लिखते थे, ण को रा इस प्रकार लिखते थे और सौ, दो सौ या पांच सौ वर्ष पूर्व की बात करें तो देवनागरी की समस्त बाराखड़ी का रूप कुछ और भी परिवर्तित था। आज भी झ को पूर्व वाले अर्थात् दोनों ही रूपों में लिखा जा रहा है। इस पर कोई भी विद्वान या भाषाविद् यह नहीं कह सकता कि यह ई इस अ में कब और किसके द्वारा परिवर्तित हुआ और यह रा इस ण में। अत: कहना होगा कि वैदिक ऋचाओं को अपने में समेटते हुए वर्तमान में जिस लिपि में संस्कृत, पाली, प्राकृत वाङमय के अतिरिक्त उत्तर भारत की अधिकांश भाषाओं में मामूली से लिप्यांतर के साथ गुजराती, बंगाली, असमिया, उडिय़ा और गुरमुखी भाषाओं में साहित्य का सृजन हो रहा है, विभिन्न विषयों की पुस्तकें लिखी जा रही है, बीए, एमए, की पढ़ाई हो रही है- वह देवनागरी लिपि ही है, कोई अन्य नहीं और इस लिपि को सैकड़ों वर्ष पुरानी ब्राह्मी लिपि से ही प्राप्त किया गया है।
देवनागरी लिपि का मूल ब्राह्मी लिपि है जो भारत की अपनी लिपि थी। इस सम्बन्ध में ‘Story of Indian scripts’ में डॉ. बीएस अग्रवाल ने लिखा है "It is a fact universally recognied that Devnagri is the direct desecendant of the ancient Brahmi script which was the National alphabet of India." विद्वानों ने बड़ी व्यापक खोजबीन के पश्चात लिपि विकास के सोपान निश्चित किए हैं। उन्होंने गहनता के साथ मानवीय उच्चारण की अधिक से अधिक ध्वनियों को एकत्रित करके एक सर्वांगींण लिपि का विकास किया था। इतना ही नहीं उन्होंने ध्वनियों पर चिन्तन करके उसे एक विशेष शास्त्र के रूप में व्यवस्थित किया जिसे व्याकरण कहा गया। इस कार्य में भारत की कितनी पीढ़ी गुजरीं, कहना कठिन है पर स्वयं पाणिनी ने ऐसे अनेक पूर्ववर्ती आचार्यों का स्मरण किया है जिन्होंने नागरी लिपि और व्याकरण को व्यवस्था दी। आज समस्त विश्व इन महान भाषा वैज्ञानिकों और व्याकरणाचार्यों का ऋण स्वीकार करता है कि लिपि विज्ञान और व्याकरण विज्ञान की आधारशिला भारतीयों ने ही रखी थी (It is a common place of linguistics to acknowledge thee that we owe to Indian Grammarians- Prof. Perth “Introduction to the Devnagri script”) देवनागरी लिपि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे स्वर एवं व्यंजनों में विभाजित किया गया है। इसमें सेमेटिक एवं रोमन लिपि की अपेक्षा आवश्यकतानुसार स्वरों की संख्या पर्याप्त है। स्वरों की कमी के कारण ही अन्य लिपियां नितांत अवैज्ञानिक बन गई हैं जिसके परिणामस्वरूप उनके माध्यम से विविध भाषाओं को लिखना सम्भव नहीं है। नागरी (देवनागरी) लिपि की दूसरी विशिष्टता यह है कि इसके वर्णों का उच्चारण और उनके लेखन में अन्तर नहीं है जब कि रोमन लिपि में बोला कुछ जाता है और लिखा कुछ जाता है। जैसे Talk (टाल्क), और बोला जाता है- ’टाक’। ध्वनि सामंजस्य में भी अन्तर है- U (यू) की ध्वनि कहीं अ है तो कहीं ऊ, जैसे But और Put और ऐसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं। जबकि देवनागरी के वर्ण उच्चारण स्थान के अनुसार सजे हुए हैं जैसे- कंठ, तालु, मूर्धा, दन्त, ओष्ठ आदि। यही कारण है कि इस लिपि में जो बोला जाता है वही लिखा भी जाता है क्योंकि इसके उच्चारण स्थान मुख में निश्चित हैं। विश्व की अन्य किसी लिपि में यह सुविधा नहीं है, और एक आज के विद्वान हैं जो रट लगाए हुए हैं कि गढ़वाली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान तभी सम्भव हो सकेगा जब उसकी अपनी लिपि होगी-कितनी भ्रामक और अविवेकी है यह सोच?
संविधान की आठवीं अनुसूची में भाषाओं को शामिल करने के लिए भारतीय संविधान में कोई मानदण्ड निर्धारित नहीं है। संविधान लागू होने के बाद जितनी भी भाषाएं इस अनुसूची में शामिल की गई हैं उनके पीछे मात्र राजनैतिक कारण रहे हैं। जिस राज्य में जितना दम था और जिस भाषा को बोलने वालों में जितना दम था उन्होंने अपनी-अपनी भाषाओं को इस सूची में सम्मिलित करवा दिया। उदाहरणत: नेपाली भाषा। यह भाषा तो भारत के किसी भी राज्य की भाषा नहीं है फिर भी यह भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित है, क्योंकि इस भाषा के बोलने वालों की भारत के नागरिक के रूप में एक बड़ी संख्या है। इसी कड़ी में बात आती है भोजपुरी भाषा की जो बिहार राज्य के एक संभाग में बोली जाती है। इस भाषा के बोलने वालों ने अपनी राज्य सरकार पर दबाव बनाया और राज्य सरकार के अनुरोध पर उसे इस सूची में सम्मिलित कर दिया गया। अब बात आती है लिपि की। अब तक संविधान की जितनी भी भाषाएं (सम्भवत: २३ भाषाएं) आठवीं अनुसूची में सम्मिलित की गई हैं उनमें से संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, मराठी, डोगरी, बोडो, मैथली, संथाली और भोजपुरी भाषाओं की लिपि देवनागरी है। इसी प्रकार भारत के २७ राज्यों में से हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखण्ड की राजभाषा हिन्दी है जिसे देवनागरी लिपि में लिखा जाता है। उपरोक्त दोनों स्थितियों को भली-भांति समझ लेने के बात उत्तराखण्ड के विद्वान लिपि को लेकर जिस भ्रम को पाले हुए उसे जितनी जल्दी हो सके अपने मन-मस्तिष्क से निकाल बाहर करें। गढ़वाली और कुमाऊनी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में सम्मिलित होने का आधा मार्ग तो साहित्य अकादमी, दिल्ली ने सुलभ कर दिया है, इन दोनों भाषाओं के साहित्य को सम्मानित करके। साहित्य अकादमी भारत सरकार की एक स्वायत्त संस्था है जिसकी स्थापना १९५२ में भारतीय भाषाओं में साहित्य लेखन को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से की गई थी। इसी सिलसिले में वर्ष २०१० में साहित्य अकादमी ने गढ़वाली और कुमाऊनी दोनों भाषाओं को अन्य भारतीय भाषाओं के समान ही मान्यता प्रदान कर दी है। भारत सरकार जब भी किसी भाषा को अष्टम अनुसूची में शामिल करने पर विचार करती है तब अन्य बातों के साथ-साथ यह भी देखा जाता है कि क्या उस भाषा के साहित्य को साहित्य अकादमी ने मान्यता दी हुई है। अब यह उत्तराखण्ड के विद्वतवर्ग पर निर्भर करता है कि कितनी जल्दी वो अपनी राज्य सरकार पर यह दबाव बनाने में समर्थ होते हैं कि राज्य सरकार इन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने के लिए भारत सरकार के गृह मंत्रालय का दरवाजा खटखटाए।
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Mera Phad,
Namaskar,
Bahut hi chintaniy our aashcharya ki bat hai ki NAPALI hamare DESH ki BHASHA hai our AATHVI ANUSUCHI me SHAMIL hai per hamari matra bhasha KUMAUNI, GADHWALI, JONSHARI nahi jabki inki LIPI DEVONAGRI hai…………………………..
Jaunsari does have unique scipt used by thier people, which has stark similarity to ‘Kosher’…. and Bhatakshri which is used in Himachal and J&K…(though these are not so popular)…its lost in time
Nice uttrakhand