(उत्तराखण्ड में स्थानीय भाषाओं को लेकर एक नई बहस शुरू हुई है। स्थानीय जरूरतों और विकास के लिए इसको प्रोत्साहन देने की टुकड़ों में बातें होती रही हैं। राज्य में बोली जाने वाली मुख्यत: तीन बोलियों कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात भी उठती रही है। इन दिनों नई दिल्ली से प्रकाशित ‘जनपक्ष आजकल’ पत्रिका द्वारा इसे लोक भाषा अभियान के रूप में चलाया जा रहा है, जिसे हम साभार यहां पर प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली कड़ी में आप लक्ष्मण सिंह बिष्ट “बटरोही’ जी का लेख , दूसरी कड़ी में बद्रीदत्त कसनियाल का लेख, तीसरी कड़ी में श्री भगवती प्रसाद नौटियाल का लेख तथा चौथी कड़ी में साहित्यकार श्री पूरन चन्द्र कांडपाल जी का लेख पढ़ा। इसकी पांचवीं कड़ी में साहित्यकार श्री दिनेश कर्नाटक जी का लेख प्रस्तुत है।)
पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड में भाषाओं को लेकर काफी हलचल है। एक ओर देश में पहली बार किसी राज्य ने संस्कृत को अपनी दूसरी राजभाषा बनाया है तो दूसरी ओर स्थानीय भाषा-बोलियों को जितनी जल्दी समूह-ग के प्रश्नपत्र में सम्मिलित किया गया, उतनी ही जल्दी उससे किनारा कर लिया गया। फिर हिन्दी अकादमी तथा भाषा संस्थान बनाने को राज्य कैबिनेट ने स्वीकृति दी। यह कदम राज्य निर्माण के लगभग दस साल बाद उठाया गया। अभी इन दोनों को अपना आकार ग्रहण करना शेष है। राज्य में संस्कृत अकादमी का गठन काफी पहले तथा काफी तेजी से हुआ था। वर्तमान सरकार संस्कृत को लेकर रोज नए-नए संकल्प ले रही है। पिछले दिनों कभी सुनने में आया कि एक गांव को संस्कृत-गांव के रूप में विकसित किया जाएगा। फिर सुनने में आया कि हरिद्वार के रिक्शे तथा टैक्सी वाले यात्रियों से संस्कृत में बात करेंगे। इसके बाद, काफी तेजी से संस्कृत विद्यालयों का अलग निदेशालय बनाया गया। सरकार बहुत जल्दी सभी सरकारी दिशा-निर्देशों तथा कार्यालयों के नामों को भी हिन्दी के साथ संस्कृत में लिखवा देना चाहती है। फिर तय किया गया कि अब कक्षा आठ के बजाय दस तक अनिवार्य संस्कृत पढ़ायी जाएगी। यह तब है जबकि राज्य के स्कूलों में लगभग दस साल से कम्प्यूटर धूल खा रहे हैं और सूचना तथा तकनीक के युग में कम्प्यूटर एक विषय के रूप में विद्यालयों में दस्तक दे रहा है। हम इस दस्तक को सुनने के बजाय बच्चों को संस्कृत में दक्ष करने का संकल्प ले रहे हैं।
जाहिर सी बात है इस सारी कवायद का उद्देश्य राज्य को देवभूमि बनाने से है। एक ऐसी देवभूमि जहां भगवा पूरे आवेग से लहराए तथा लोग देववाणी में बोलते हुए नजर आएं। इसीलिए राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया था। एक ऐसा नाम जिसके होने से राष्ट्रीयता को बल मिलता तथा भदेसपन और अलगाव नजर नहीं आता था। शायद इसीलिए मशहूर लेखक हिमांशु जोशी को कहना पड़ा कि उत्तराखण्ड मेरे सपनों का राज्य नहीं है, हमने तो इस राज्य की परिकल्पना उत्तरांचल के रूप में की थी। हिमांशु जोशी तो यह बात दिल्ली में रहकर कह रहे हैं, लेकिन इस राज्य के बहुसंख्यक पिछड़े लोगों का क्या किया जाए, जिन्हें राष्ट्र तथा उसका गौरव कभी समझ में नहीं आता, जो कभी उत्तराखण्ड तो कभी अपनी पिछड़ी भाषाओं को लेकर बीच में आ जाते हैं। इन्हीं लोगों की वजह से सरकार को अलग से भाषा संस्थान बनाना पड़ता है। तीन दिन का वृहत लोकभाषा सम्मेलन करना पड़ता है। वरना क्या राज्य में संस्कृत अकादमी नहीं थी? मजबूरी है भाई चुनाव में भी तो जाना है। बात साफ है, अगर इस सरकार को लोकभाषाओं तथा उत्तराखण्ड की अस्मिता की चिन्ता होती तो वह राज्य की दूसरी राजभाषा कुमाऊनी, गढ़वाली को बनाती। कितनी अजीब बात है कि हम कुमाऊनी-गढ़वाली को आठवीं अनुसूची में तो सम्मिलित करना चाहते हैं, मगर उन्हें अपने ही राज्य की दूसरी राजभाषा नहीं बना सकते। अगर हमें उत्तराखण्ड की सांस्कृतिक पहचान की चिन्ता होती तो हम अब तक संगीत, नाटक तथा कला अकादमी और हिन्दी अकादमी जैसी संस्थाओं को कब के बना चुके होते। क्योंकि इस से देवभूमि की अवधारणा का भला नहीं होता, इसलिए ऐसा काम क्यों किया जाए? गौर करें अपने कार्यकाल में नारायण दत्त तिवारी ने जितनी रुचि संस्कृत अकादमी को बनाने में ली, उतनी ही उपेक्षा साहित्य, कला तथा संस्कृति परिषद बनाकर इन क्षेत्रों के प्रति दिखायी। हालांकि वर्तमान सरकार ने भाषा संस्थान तथा हिन्दी अकादमी बनाकर सही दिशा में चलने का प्रयास तो किया है, लेकिन इनके गठन की गति अपने आप में सब बयान करती हुई नजर आ रही है।
भाषा तथा अस्मिता पर चर्चा करते हुए हमें उत्तराखण्ड राज्य की अवधारणा के मूल में जाना होगा। उत्तराखण्ड के लोगों ने राज्य निर्माण की लड़ाई क्यों लड़ी? पहला कारण था आर्थिक। रोजगार की समस्या तथा बेहतर जीवन का सवाल! दूसरा महत्वपूर्ण कारण था, पहचान! उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य का हिस्सा होने के कारण इस पहाड़ी क्षेत्र की पहचान को डाइल्यूट कर दिया जाता था। क्षेत्रीय आकांक्षाओं को राष्ट्रहित के मार्ग में रोड़ा दिखाकर हवा में उड़ा दिया जाता था। तभी पहाड़ को अपनी मुट्ठी में कैद समझने वाले नारायण दत्त तिवारी जैसे नेता कल्पना भी नहीं करना चाहते थे कि कभी अलग उत्तराखण्ड राज्य बनाया भी जा सकता है। राज्य बना और पहचान को डाइल्यूट करने का क्रम भी चलता रहा। राज्य बनने के बाद जन भावनाओं के विरूद्ध जाकर राज्य का नाम उत्तरांचल रखा गया तथा हरिद्वार के उन क्षेत्रों को राज्य में जोड़ दिया गया जहां के लोग राज्य में सम्मिलित ही नहीं होना चाहते थे। इससे पहाड़ी राज्य की अवधारणा को काफी धक्का लगा। इस संकट को नए परिसीमन के बाद हुए विधानसभा क्षेत्रों के वर्गीकरण से उपजी स्थितियों से भी समझा जा सकता है। यही नहीं जब राज्य की दूसरी राजभाषा का सवाल आया तो कुमाऊनी-गढ़वाली को छोडक़र संस्कृत को राजभाषा बना दिया गया। दरअसल, हमें लगता है कि अगर कोई राज्य और वहां की जनता अपनी भाषा की बात करती है तो वह अलगाव की ओर बढ़ रही है। भाषा मनुष्य की आत्मा की तरह है। आप किसी क्षेत्र के लोगों को उनकी आत्मा से कैसे काट सकते हैं। हर भाषा चाहे वह लोकभाषा हो अथवा राजभाषा, अपने बोलने वाले लोगों के अपार श्रम, सामूहिकता तथा सांस्कृतिक निष्ठा के कारण अस्तित्व में आती है। हरेक भाषा को बनने में सैकड़ों साल लगते हैं। वह एक नदी की तरह लम्बी यात्रा करते हुए तथा तमाम ठोकरें खाने के बाद अपना रूप और आकार बनाती जाती है। इसलिए कोई भी भाषा क्यों न हो, वह मानवता की अमूल्य निधि है। वह छोटी-बड़ी नहीं हो सकती। उसे छोटा-बड़ा राजनीति बनाती है। वह देश की एकता में बाधा नहीं हो सकती। अगर आप उसे सम्मान देंगे तो वह देश की एकता को मजबूत करने में अपनी भूमिका निभायेगी। मजे की बात देखिए, जिस हिन्दी को दक्षिण अपने ऊपर थोपने का विरोध कर रहा था, आज वहां के युवा व्यापार, सिनेमा तथा रोजगार के लिए खुद ही बगैर किसी हिचक के उसे अपना रहे हैं। लोकभाषाओं का अपना क्षेत्र होता है। हो सकता है, उनका विस्तार कुछ जिलों या किसी क्षेत्र विशेष तक हो। यह भी सच है कि लोकभाषाएं राजभाषाओं का स्थान नहीं ले सकतीं, लेकिन कम से कम राज्य बनने के बाद वे अपने क्षेत्र में गौरवान्वित तो हों। नाटक, संगीत, सिनेमा, साहित्य, पत्रकारिता तथा विद्यालयों में मुख्य भाषा में पाठ के रूप में शामिल हो कर लोगों की जुबान पर बनी रहे, फले-फूले। इसी प्रकार हमारी राजभाषा हिन्दी न सिर्फ राज्य के भीतर, बल्कि देश के स्तर पर संपर्क भाषा का कार्य करे। हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी तथा लोकभाषाओं का रिश्ता कहीं घर के अंदर से शुरू होता है तो कहीं आंगन से तो कहीं सडक़ पर आकर। कई बार हम हिन्दी को लोकभाषाओं की तरक्की में बाधा के रूप में देखने लगते हैं। यह संकीर्ण सोच है। दोनों की भूमिकाएं तथा क्षेत्र अलग-अलग हैं। इसलिए उनमें आपस में टकराव का सवाल ही नहीं है। हिन्दी भी लोकभाषाओं की तरह हमारी आत्मा तथा अस्मिता की भाषा है।
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Mera uttarakhand bhai bhain se ek vinti hai jayada si jayda apni bhasa( garhwali,jaunsari, kumaoni) ka prayog kare
Mera uttarakhand bhai bhain se ek vinti hai jayada si jayda apni bhasa( garhwali,jaunsari, kumaoni) ka prayog kare tabhi hamari bhasaon ka vikash hoga aur ye samridh hogi
Good
kumoani garwali medium schooling education will incourage these languases.many years ago massab teaches alphabets like amarka bachuldi etc.
Mi Dr Narendra GauniyaalJin ju likhi vesi puri taron saimat chaun. Unki ek bhot khaas baat jai far ham log vishesh dhyaan ni denda oo ch ” bhasa ki ekroopta “. Log bani bani ki garhwali chan likhna jaiki vaja si ekroopta ni ch. Agar hamthain garhwali thain ek bhashak roop ma viksit karn ta sabsee pail sabthain ” ekroopta” thain apnaun podlu.
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