(उत्तराखण्ड में स्थानीय भाषाओं को लेकर एक नई बहस शुरू हुई है। स्थानीय जरूरतों और विकास के लिए इसको प्रोत्साहन देने की टुकड़ों में बातें होती रही हैं। राज्य में बोली जाने वाली मुख्यत: तीन बोलियों कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात भी उठती रही है। इन दिनों नई दिल्ली से प्रकाशित ‘जनपक्ष आजकल’ पत्रिका द्वारा इसे लोक भाषा अभियान के रूप में चलाया जा रहा है, जिसे हम साभार यहां पर प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली कड़ी में आप लक्ष्मण सिंह बिष्ट “बटरोही’ जी का लेख , दूसरी कड़ी में बद्रीदत्त कसनियाल का लेख तथा तीसरी कड़ी में श्री भगवती प्रसाद नौटियाल का लेख पढ़ चुके हैं, इसकी चौथी कड़ी में साहित्यकार श्री पूरन चन्द्र कांडपाल जी का लेख प्रस्तुत है।)
मातृभाषा जिसे दुधबोली भी कहते हैं अर्थात् वह भाषा जो हम अपनी मां के मुख से सुनते हैं, फिर बोलते हैं। यहां पर अभी लिखने का प्रश्न नहीं है, केवल बोलने का है। बच्चा स्कूल जाने से पहले ही इस भाषा को बोलता है। दूसरी है राजभाषा- जो कि संविधान में स्पष्ट है, ‘संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। हमारा देश २८ राज्यों और ७ केन्द्रशासित प्रदेशों का संघ है। जिन राज्यों में हिन्दी प्रचलन में नहीं है, वहां क्षेत्रीय भाषा के साथ हिन्दी पढ़ायी जाती है। हमारे संविधान में अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। तीसरी है राष्ट्रभाषा-हमारे देश में हिन्दी अघोषित राष्ट्रभाषा है, जबकि संविधान में यह आज भी राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी हमारे राष्ट्र की पहचान है। यह पूरे राष्ट्र की संपर्क भाषा भी है। चौथी है संपर्क भाषा- हिन्दी के साथ ही अंगे्रजी आज भी हमारे विभिन्न प्रान्तों में संपर्क भाषा या ‘लिंक भाषा’ का कार्य कर रही है। व्यावहारिकता को देखते हुए हमारे देश में ‘त्रिभाषा फार्मूला’ प्रचलन में है अर्थात-मातृभाषा (स्थानीय भाषा), हिन्दी और अंग्रेजी। कई प्रदेशों में प्रांतीय भाषाओं में राजकाज भी चल रहा है, परन्तु इन राज्यों का केन्द्र, दूसरे प्रांतों, हिन्दी या अंग्रेजी में संपर्क होता है। देश में जिन २४ भाषाओं को संवैधानिक मान्यता प्राप्त है उनका उल्लेख संविधान की आठवीं अनुसूची में है। ये इस प्रकार हैं- १.असमिया, २.ओडीसी, ३.उर्दू, ४.कन्नड़, ५.कश्मीरी, ६.गुजराती, ७.तमिल, ८.तेलुगू, ९.पंजाबी, १०.बंगला, ११.मराठी, १२.मलयालम, १३.संस्कृत, १४.सिन्धी, १५. हिन्दी, १६.मणिपुरी, १७.नेपाली, १८.कोंकणी, १९.मैथिली, २०.संथाली, २१. बोडो, २२. डोगरी, २३.राजस्थानी, २४.तुडू।
इन चौबीस भाषाओं में हिन्दी, मराठी, संस्कृत, राजस्थानी, मैथिली, नेपाली की लिपि देवनागरी है और दस राज्यों की राजभाषा हिन्दी है। उत्तराखण्ड की राजभाषा भी हिन्दी है। यहां कुमाऊनी और गढ़वाली मुख्य मातृभाषाएं है, जिनकी लिपि देवनागरी है। राज्य में जौनसारी, बुक्सा, थरूआटी, रं (भोटिया) और राजी (बनरौत) लोकभाषाएं बोलने वाले भी हैं, जिनकी संख्या अधिक नहीं है। कुमाऊनी और गढ़वाली बोलने वालों की संख्या लगभग पच्चीस-पच्चीस लाख है, जबकि इन भाषाओं को समझने वालों की संख्या कहीं अधिक है क्योंकि कुमाऊनी बोलने वाले गढ़वाली और गढ़वाली बोलने वाले कुमाऊनी समझते हैं। राज्य में पंजाबी, उर्दू आदि भाषाएं भी प्रयोग में हैं, मगर ये पहले से ही आठवीं अनुसूची में शामिल हैं। कुमाऊनी और गढ़वाली राज्य की दो प्रमुख मातृभाषाएं हैं और यहां के अधिकांश लोगों द्वारा बोली भी जाती हैं। उत्तराखण्ड में रहने वाले लगभग सभी लोग इन दोनों में से किसी एक को अच्छी तरह समझते हैं। इन दोनों भाषाओं का लगभग सभी विधाओं में साहित्य उपलब्ध है। ये दोनों ही यहां के जन की बोलियां भी हैं। इतना होने के बावजूद भी इन दोनों भाषाओं को अभी तक आठवीं अनुसूची में स्थान नहीं मिला है। गढ़वाली की तरह कुमाऊनी की शब्द सम्पदा भी कम नहीं है। शब्दों से भरपूर हैं ये दोनों, न लेखकों की कमी न पाठकों की। ऐसा कुछ पुस्तकों और पत्रिकाओं का पाठकों के पास निरंतर पहुंचने के आधार पर कहा जा सकता है। कुमाऊनी के भाषाविद् प्रो. केशवदत्त रुवाली के लेख (कुमाऊनी मासिक पत्रिका ‘पहरू’ नवम्बर २०१० अल्मोड़ा से प्रकाशित) के अनुसार कुमाऊं क्षेत्र में दस प्रकार की कुमाऊनी बोली जाती है। पूर्वी भाग में चार-कुमाई, सोराली, सीराली और अस्कोटी तथा पश्चिमी भाग में छह- खसपर्चिया, चौगर्खिया, गडनेई, दनपुरिया, पछाई और रौचाबैसी, ये दसों प्रकार की कुमाऊनी के बोलने के लहजे में तनिक अंतर है। कुछ शब्द-सम्पदा में भी भिन्नता है, परन्तु इन्हें समझने में कहीं पर भी किसी को कोई परेशानी नहीं होती है। भाषा विद्वान प्रो. शेर सिंह बिष्ट के व्याखान के आधार पर कुमाऊनी की शब्द-सम्पदा को ध्यान में रखते हुए भाषा मानकीकरण की तरफ अग्रसर हैं। किसी भी क्षेत्र में जो भाषा बोली जाय वह तो वैसे ही बोली जाएगी क्योंकि वह दुधबोली है, परन्तु लिखने के लिए ‘पछाइ’ कुमाऊनी (अल्मोड़ा क्षेत्र में सर्वाधिक बोली जाने वाली) का प्रयोग भाषाविदों ने स्वीकारा है। भाषाविद् इस बात पर भी एकमत हैं कि ‘पछाइ’ के अलावा अन्य नौ कुमाऊनी भाषाओं को भी नजरअंदाज नहीं किया जाएगा, परन्तु व्याकरण के हिसाब से लेखन में ‘पछाइ’ का ही प्रयोग होगा। बहरहाल, इस बात पर किसी को कोई आपत्ति नहीं है। बहस का मुद्दा तो भाषा को आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने का है। इसके लिए भाषा की एकरूपता अर्थात् स्वीकार की हुयी एक भाषा का प्रारूप अति आवश्यक है, जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान मिले।
हिन्दी भी तो कई रूपों (प्रकार) से लिखी गयी- बृज, अवधी, रूहेलखण्डी, मैथिली आदि, मगर अंत में स्वीकार की गई हिन्दी की ‘खड़ी बोली’ जो आज दस राज्यों की राजभाषा है और पूरे राष्ट्र की संपर्क भाषा है। जहां तक उत्तराखण्डी लोक भाषाओं की लिपि का प्रश्न है, ये भी देवनागरी लिपि में ही लिपिबद्ध है। गढ़वाली में लिखे गए साहित्य की भी कमी नहीं है। कुमाऊनी और गढ़वाली के शब्दकोशों की भी कमी नहीं है। डॉ. रुवाली और डॉ. नारायण दत्त पालीवाल के कुमाऊनी शब्दकोश उपलब्ध है। गढ़वाली, जौनसारी में भी शब्दकोश उपलब्ध हैं। व्याकरण और वृहद शब्दकोशों की रचनाएं भी हो रही हैं। रजनी कुकरेती रचित ‘गढ़वाली भाषा का व्याकरण’ २०१० में प्रकाशित हुआ है। ‘पहरू’ पत्रिका में एक पृष्ठ बतौर शब्दकोश ही छप रहा है। १२,१३ और १४ नवम्बर २०१० को अल्मोड़ा में आयोजित त्रिदिवसीय कुमाऊनी भाषा सम्मेलन तथा १६,१७ और १८ अप्रैल २०११ को देहरादून में आयोजित प्रथम उत्तराखण्डी लोकभाषा सम्मेलन में कुमाऊनी और गढ़वाली भाषा के इतिहास, विकास, स्वरूप, लोक सहित्य, व्याकरण, मानकीकरण आदि विषयों पर विस्तृत वार्ता हुयी। इस बात का भी उल्लेख हुआ कि लगभग आठवीं से सोलहवीं शताब्दी तक चम्पावत कूर्माचल की राजधानी रहा और कूर्माचली यहां के राजकाज की भाषा रही।
यह स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्र में कोई भाषा रातोंरात नहीं पनपती, यह सदियों से चलायमान होती है। उत्तराखण्ड में पहले कौन सी भाषा बोली जाती थी? अक्रांता आया और चला गया, भाषा तो पहले से ही थी। यही कारण है कि इन भाषाओं की शब्द-सम्पदा बड़ी धनवान है। इसी आधार पर साहित्य अकादमी ने कुमाऊनी और गढ़वाली को मान्यता भी दी है। संविधान में स्पष्ट है कि ‘प्रत्येक राज्य और राज्य के भीतर प्रत्येक स्थानीय प्राधिकारी भाषाई अल्पसंख्यक-वर्गों के बालकों को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की प्रर्याप्त सुविधाओं की व्यवस्था करने का प्रयास करेगा और राष्ट्रपति किसी राज्य को ऐसे निर्देश दे सकेगा जो वह ऐसी सुविधाओं का उपलब्ध सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक या उचित समझता है।’
उत्तराखण्ड सरकार संस्कृत को हिन्दी के बाद द्वितीय दर्जा देकर फूले नहीं समा रही है। क्या संस्कृत राज्य में हमारी मातृभाषा है? क्या यह जन-जन की बोली है? क्या यह राज्य में आम प्रयोग में आ रही है? इन तीनों प्रश्रों का उत्तर नहीं है। अब प्रश्न उठता है क्या कुमाऊनी-गढ़वाली राज्य की मातृभाषा है? क्या ये जन-जन की भाषाएं हैं? क्या इन्हें राज्य में आम व्यक्ति बोलता-समझता है? इन तीनों प्रश्नों का उत्तर हां है। यह सब जानते हुए भी उत्तराखण्ड सरकार ने स्थानीय भाषाओं के बजाय संस्कृत को द्वितीय दर्जा क्यों दिया? यह प्रश्न राज्य के कोने-कोने में गूंज रहा है और सरकार इसका उत्तर नहीं दे पा रही है। संस्कृत को दूसरा दर्जा देकर सरकार ने आम आदमी के हित की बात नहीं सोची। संस्कृत राज्य में आम बोलचाल की भाषा नहीं है, यह केवल कर्मकाण्ड की भाषा है। सबसे पुरानी भाषा होने का स्तर इसे प्राप्त है। यह आठवीं अनुसूची में भी है। इसका साहित्य भी भरपूर है, परन्तु यह जन की भाषा नहीं है। संस्कृत का कोई विरोधी भी नहीं है। यह माध्यमिक कक्षाओं में पढ़ाई जा रही है। कुछ लोग स्वेच्छा से इसे अगली कक्षाओं में भी पढ़ रहे हैं। संस्कृत में जो कर्मकाण्ड हमारे घरों में होता है उसे वह भी नहीं समझता जो इसे पढ़ता-बांचता या इसका गलत उच्चारण करता है। हमें संस्कृत से स्नेह भी है, परन्तु जमीनी सच्चाई व्यक्त करनी ही पड़ेगी। संस्कृत को उत्तराखण्ड में द्वितीय भाषा का दर्जा देने से राज्यवासियों को क्या लाभ हुआ, जिससे वह राज्य सरकार की पीठ थपथपाए? जनभाषा न होते हुए भी संस्कृत का मंत्रोच्चारण कम नहीं हुआ है। सरकार को सलाह देने वाले भाषाविदों को मुठ्ठी पर लोगों के संतुष्टीकरण के लिए लाखों कुमाऊनी और गढ़वाली बोलने-समझने, लिखने-पढऩे वालों के साथ अन्याय नहीं करना चाहिए। शीघ्र ही इन्हें राज्य में द्वितीय भाषा का दर्जा देना चाहिए। यदि राज्य सरकार कुमाऊनी-गढ़वाली को राज्य में द्वितीय दर्जा नहीं देगी तो इसका पठन-पाठन प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर पर स्कूलों में नहीं हो सकेगा। अपने राज्य की भाषा को बचाने के लिए देश के छोटे से राज्य गोवा ने इसी वर्ष से प्राथमिक कक्षाओं में इसे पढ़ाए जाने का आदेश जारी किया है। देश के सभी पहाड़ी राज्यों में स्थानीय भाषाएं सरकारी संरक्षण में फल-फूल रही हैं। भाषा पढ़ायी नहीं जाएगी तो धीरे-धीरे उसकी व्यावहारिकता कम हो जाएगी। कभी-कभी देखने में आता है कि स्थानीय बाजार या बारात में, सभा या मुलाकात में स्थानीय भाषा की व्यावहारिकता घट रही है। साक्षरता दर बढऩे के साथ बच्चे उस भाषा में अधिक बोलने लगे हैं जिसमें वे पढ़ायी करते हैं अर्थात् हिन्दी की व्यावहारिकता बढ़ रही है। हिन्दी तो राजभाषा है ही और आम प्रचलन में भी है। जिन लोगों को यह शंका है कि कुमाऊनी-गढ़वाली के प्रचार-प्रसार व्यवहार से हिन्दी को धक्का लगेगा, यह उनका संकुचित दृष्टिकोण है। हिन्दी राज्य की जनप्रिय भाषा है। उसका अध्ययन भी हो रहा है और व्यावहारिकता भी बनी हुयी है। फिर हिन्दी को धक्का लगने का हौवा क्यों खड़ा किया जाता है? कुछ लोग राज्यवासियों को अपनी मातृभाषा के प्रति अरुचि दिखाने के नए-नए हथकंडे अपनाते हैं। यह ठीक है कि देश के किसी भी राज्य में उस राज्य के वाशिन्दों को अपनी जुबान में ही बोलने की अनिवार्यता नहीं है, परन्तु उस राज्य की मातृभाषा को पल्लवित- पुष्पित करना भी उस राज्य की सरकार का संवैधानिक कर्तव्य है। राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री भी संस्कृत के अभ्यस्त नहीं हैं। उनकी मातृभाषा गढ़वाली है। राज्य में चुनाव की सुगबुगाहट चल पड़ी है। अपने बड़े-बड़े विज्ञापनों में सरकार भाषा की चर्चा नहीं करती। भाषा को जिन्दा रखने के लिए यह अहम मुद्दा है। इस मुद्दे को राजनीतिक दलों द्वारा अपने घोषणा पत्र में सर्वोपरि उल्लेख करने की राज्य की जनता प्रतीक्षा कर रही है। इस बात की सराहना की जानी चाहिए कि उत्तराखण्डी भाषाओं के कवि, गीतकार, गायक, साहित्यकार और पत्रकार अपनी मातृभाषा को समृद्ध करने में लगे हैं। घरों में भी इन भाषाओं के प्रयोग में निरंतरता बनी रहनी चाहिए। विवाह-कार्ड और निमंत्रण-सूचना पत्र उत्तराखण्डी भाषाओं में छपने चाहिए। हमें एक नहीं, अनेक भाषाएं सीखनी चाहिए, परन्तु सबसे अच्छी बात तो यह होगी कि हम अपनी मां को न भूलें, अपनी मातृभाषा को न भूलें। भाषा तो जुबान से जिन्दा रहती है, लिखित विधाएं तो उसे संजोए रखती हैं। अत: हमें अपनी भाषा बोलने में पीछे नहीं हटना चाहिए और उसके विकास, सृजन और संवर्धन में निरंतर आगे बढ़ते रहना चाहिए। राज्य सरकार को भी अब मातृभाषाओं को ‘द्वितीय दर्जा’ देने में देर नहीं करनी चाहिए।
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उत्तराखण्ड पर जो भी पुस्तकें लिखी जाती हैं, उन्हें कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी में भी लिखा जाना चाहिये।