(उत्तराखण्ड में स्थानीय भाषाओं को लेकर एक नई बहस शुरू हुई है। स्थानीय जरूरतों और विकास के लिए इसको प्रोत्साहन देने की टुकड़ों में बातें होती रही हैं। राज्य में बोली जाने वाली मुख्यत: तीन बोलियों कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की बात भी उठती रही है। इन दिनों नई दिल्ली से प्रकाशित ‘जनपक्ष आजकल’ पत्रिका द्वारा इसे लोक भाषा अभियान के रूप में चलाया जा रहा है, जिसे हम साभार यहां पर प्रकाशित कर रहे हैं। इसकी पहली कड़ी में आप लक्ष्मण सिंह बिष्ट “बटरोही’ जी का लेख पड़ चुके हैं, इसी क्रम में वरिष्ठ पत्रकार एवं ‘आज का पहाड़’ पत्रिका के संपादक बद्रीदत्त कसनियाल का लेख प्रस्तुत है।)
राज्य बनने के बाद उत्तराखण्ड की सरकारों ने जिन बुनियादी पहलुओं की उपेक्षा कर राज्य की पृथक पहचान बनने से रोका है उनमें से उत्तराखण्ड की भाषाएं प्रमुख हैं। उत्तराखण्डी समाज में सरकारों ने जब भाषा के सवाल उठाए है तब दर्जनों भाषाओं को सामने रखकर बात की है, जिनके बोलने वाले राज्य में पिछले पचास वर्षों में आकर बसे हैं और इसकी आड़ में पिछले तीन हजार वर्षों से बोली जाने वाली उत्तराखण्डी समाज की भाषाओं की पूरी तरह उपेक्षा की है। इसी कारण आज उत्तराखण्ड में पर्वतीय समाज की पृथक पहचान का कोई खाका उभरता हुआ नहीं दिखता, क्योंकि पहाड़ी समाज की सारी पहचान इसी भाषा की चाबी में छुपी हुई हैं।
उत्तराखण्ड में मूल रूप से गढ़वाली, कुमाऊनी, जौनसारी के अलावा आधा दर्जन भाषाएं बोली जाती हैं। इन भाषाओं के कई स्त्रोत हैं। इण्डो आर्यन, इण्डो तिब्बती तथा दरद परिवार की मध्य पहाड़ी भाषाएं इनमें प्रमुख हैं। इनमें से कुमाऊनी, गढ़वाली तथा जौनसारी राज्य में बहुसंख्य लोग बोलते हैं। भाषाविद् प्राचीन सौर सेनी प्राकृत परिवार में सम्मिलित करते हैं। उनका मानना है कि कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी के साथ ही हिमाचल, कश्मीर तथा पश्चिमी नेपाल के क्षेत्रों में बोली जाने वाली भाषाएं पहाड़ी भाषाओं में सम्मिलित हैं। दरद पहाड़ी उप परिवार की मध्य पहाड़ी भाषाओं की श्रेणी में आती है। इस तरह व्याकरण की दृष्टि से कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषाओं का उदय उसी मूल भाषाओं समूह से हुआ है जिससे राजस्थानी, बुंदेली, अवधी, भोजपुरी या उत्तर भारत की अन्य भाषाओं का हुआ है।
लेकिन उत्तराखण्ड की कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषाओं में एक विशिष्टता है। पूर्व प्राकृत व्याकरण के उद्भव तथा उसके विखंडन के समय से भारतीय आर्यों की मूल भाषा परिवार के रूप में बोली जाने वाली ये भाषाएं अपने तीन हजार वर्षों के कालक्रम में हजारों गैर आर्य या गैर संस्कृत प्राकृत परिवार के शब्दों को अपने आप में समाती गई हैं। भाषा विद्वानों का कहना है कि उत्तराखण्ड क्षेत्र में न केवल आर्य मूल के खसों की आमद रही है, बल्कि कोल, किरात, यक्ष, शक, किन्नर, गन्धर्व, नाग, कुलीन्द तथा हूंण सभी वंश प्रजातियों की आमद भी रही। खश आक्रमणकारियों ने यहां पर जिन लोगों को हराकर स्वयं को स्थापित किया, उनमें कोल और किरात वंश के मूल के लोग थे जिनकी भाषा तमिल परिवार के भाषाओं से और बड़े स्तर पर निग्रो परिवार की भाषाओं से मेल खाती थी। भाषा पर शोधकर्ताओं ने कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी में आज भी निग्रो परिवार की इन भाषाओं का होना स्थापित कर दिया है। ऐसा सौर सेनी प्राकृत परिवार की अन्य भाषाओं में कम देखने को मिलता है। इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से हिमालय का क्षेत्र देश की मुख्यधारा से पूरी तरह अलग रहा। अभी सौ साल पहले तक कुमाऊं और गढ़वाल के क्षेत्र तिब्बत की ओर अधिक खुले हुये थे, मुख्यधारा की ओर कम। इस क्षेत्र में व्यापार मुख्यतया तिब्बत से ही होता रहा और तिब्बती समाज के साथ पहाड़ी समाज का सुबह-शाम का साथ रहा, जिसके प्रमाण आज भी कुमाऊनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषा के शब्दों के रूप में प्रच्छन्न रूप से प्रयुक्त किये जाते हैं। इसी तरह उत्तराखण्ड का हिमाचल तथा नेपाल से भी सामाजिक संबंध बना रहा, जिसका असर आज पूर्वी कुमाऊं तथा जौनसारी भाषाओं में साफ दिखता है। भाषा विद्वानों का यह भी मानना है कि मुख्यधारा से सांस्कृतिक अलगाव के समय हिमालय क्षेत्र में जिन दरद पहाड़ी भाषाओं का प्रचलन था, उनमें कई पुस्तकों की भी रचना की गई जो कि आज भी सुलभ हैं। जैसे पेशाची भाषा, जिसमें गुणाध्याय द्वारा लिखा गया ग्रंथ प्राकृत व्याकरण पर ही आधारित है। बृहत्कथा नामक इस ग्रन्थ को कई प्राचीनकाल में कई भाषाओं में अनुदित किया गया है। भाषा विद्वानों का मानना है कि इस प्रकार की प्रवृत्तियां कुमाऊनी और गढ़वाली भाषाओं के दरद परिवार की भाषाओं की समूह की होने का प्रमाण है जिन्हें बाद में इण्डो आर्य परिवार की भाषाओं ने पीछे धकेल दिया, पर आज भी ल्हाण्डा, कश्मीरी, सिना, गिलगित, खोआर, चित्राल तथा कई क्षेत्रों में ये भाषाएं अधिकांशत: कुमाऊनी और गढ़वाली के कुछ शब्दों के रूप में मौजूद हैं। प्राचीनकाल के भाषा विद्वान लक्ष्मीधर ने कई देशों का वर्णन किया है, जो ये पेशाची भाषा बोलते थे इनमें पांडव प्रदेश भी है जिसका संबंध विद्वानों ने उत्तराखण्ड के पहाड़ों से जोड़ा है।
उत्तराखण्ड में इतिहास पर बहुत कम अनुवेषण हुए हैं। ताम्रपत्रों और पुराने बहियों के आधार पर जो भी शोध कार्य हुये हैं, उनसे सिर्फ पिछले पांच सौ या हजार वर्षों में मुख्यधारा के राजाओं, विद्वानों के आगमन तथा उनकी सांस्कृतिक प्रवृतियों के फलने-फूलने के ही प्रमाण मिलते हैं। उत्तराखण्ड में आज भी कोई ऐसा शोध नहीं हो पाया है जिससे इस समाज की हजार वर्ष की पूर्व से सामाजिक इतिहास का पता चल सके। यदि महाभारत का लेखक उत्तराखण्ड में खसों, दरदों, किरातों, तंगड़ों की सेना का होना लिखता है और अर्जुन को हिमालय के किरात के सम्मुख अपने गांडीव की शक्ति क्षीण लगती है तो हिमालय में इन जातियों के प्रभुत्व से इनकार नहीं किया जा सकता। विभिन्न समयों पर उत्तराखण्ड और हिमालय के इतिहास में इन विभिन्न जातीय समूहों के प्रभुत्व की चाबी सिर्फ कुमाऊंनी, गढ़वाली और जौनसारी भाषाओं के शब्दों में है जिनमें से एक-एक शब्द एक-एक दौर के इतिहास की रहस्य की गुत्थियां खोल सकता है। उत्तराखण्ड की इन तीन मूल भाषाओं के साथ सबसे बड़ी चुनौती यह है कि पिछले तीन हजार वर्षों में लम्बे समय तक एक संगठित राजनीतिक इकाई न रहने के कारण यहां की भाषाएं अलग-अलग ध्वनि समूहों में बंट गई हैं। आज जौनसारी के छह, गढ़वाली-कुमाऊनी में एक दर्जन से अधिक विविधताएं हैं। हर दस किलोमीटर के क्षेत्र में भाषा के शब्दों के ध्वनि उच्चारण अलग हो जाता है। दूसरी स्थानीय भाषाओं के प्रभाव का उस पर असर दिखता है। एक राजनीति इकाई न होने के कारण कभी भी समग्र रूप से इन भाषाओं के मानकीकरण का प्रयास नहीं किया गया। मध्यकाल की राजसत्ताओं ने अपनी विलासिता के चलते इस तरफ कभी ध्यान नहीं दिया जिससे उत्तराखण्ड के समाज में व्यापक भाषायी विविधता दिखती है और पूरे राज्य की एक भाषा न होने के कारण स्थानीय भाषा के प्रोत्साहन का जोश कुछ समय बाद बंटकर क्षीण हो जाता है। अब चूंकि उत्तराखण्ड एक राजनीतिक इकाई बन गया है इसलिए इस राज्य को अपनी सांस्कृतिक पहचान की जड़ें भाषा और सांस्कृतिक परंपराओं में खोजनी चाहिए और इस सांस्कृतिक पहचान में समग्रता के तत्वों को संचित तथा विकसित किया जाना चाहिए।
आज कुमाऊनी और गढ़वाली भाषा बोलने वालों की संख्या उत्तराखण्ड की एक करोड़ से अधिक की आबादी में पचास लाख से अधिक नही हैं। जबकि जौनसारी भाषा लगभग एक लाख लोग ही बोलते हैं। पिछले दशकों की जनगणना की तुलना में उत्तराखण्ड की इन मूल भाषाओं को बोलने वालों की संख्या लगातार घट रही है। लगातार पहाड़ों से महानगरों की ओर पलायन हो रहा है और पलायन के साथ ही अपनी मातृभाषाएं कुमाऊनी, गढ़वाली लोग अभिव्यक्ति के लिये कम, फैशन के लिये अधिक बोलते हैं। आज जरूरत इस बात की है कि इन भाषाओं के शब्दों की विवेचना की जाये, उनके पीछे छिपे हुये ऐतिहासिक तत्वों का पता लगाने के लिये शोध किया जाये। कुमाऊनी और गढ़वाली में जो मूल शब्द, ध्वनियां, उच्चारण एवं अभिव्यक्तियां गायब होकर नकली स्वरूप ग्रहण कर रही हैं उसे रोका जाए। जब तक उत्तराखण्डी समाज भाषा के माध्यम से सांस्कृतिक पहचान स्थापित करने की दिशा में प्रयास नहीं करेगा तब तक कुमाऊंनी, गढ़वाली, जौनसारी और थारू, बोक्सा, रंग तथा राजी भाषाओं का उत्थान नहीं हो सकता।
एक और मुख्य जरूरत इन भाषाओं को साहित्यिक रूप से समृद्ध करने की भी है। यह आवश्यता न केवल गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी के मानक स्थान माने जाने वाली भाषाओं में है, बल्कि पूरी उपबोलियों में है। जैसे गढ़वाल में श्रीनगरीय, सैलानी, बधानी, लोबिया, मटियानी, नागपुरिया, रांठी, रंवाई, गंगाड़ी, चांदपुरी तथा जाड़ी उपबोलियों तथा कुमाऊं में खसपरजीया, दनपुरिया, फलदाकोटी, कुमइयां, सौरीयाली, जौहारी, दरमियां, पछांई, गंगोली, सेराली, चौगड़खिया तथा भाबरी भाषाओं में व्यापक साहित्य सजृन की आवश्यकता है। वर्तमान परिस्थितियों में जबकि कुमाऊनी, गढ़वाली की किसी एक उपबोली में किये जा रहे साहित्यक सर्जन को प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है, तब इन उपभाषाओं का भला कब होगा। लेकिन सारी सांस्कृतिक पहचान की चाबी उन शब्दों में ही है जो इन उपभाषाओं में अलग-अगल रूप से उच्चारित किये जाते हैं और अपने उच्चारण में पूरा सांस्कृतिक इतिहास समेटे रहते हैं।
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