निस्वार्थ, कर्मनिष्ठ समाजसेवी श्रीमती रेवती उनियाल का व्यतित्व बहुत निराला था, एक साधारण किसान परिवार में जन्मी पुजार गांव की रेवती बचपन से ही अति तेजस्वी तथा मेधावी थी। वे पिता की असामयिक मृत्यु के कारण केवल पाचवीं कक्षा तक ही पढ़ सकीं। १७ वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ, पति श्री मेधापति उनियाल का तीन वर्ष बाद ही देहान्त हो गया। इनकी पैतृक सम्पत्ति श्रीनगर गढ़वाल में थी, वैधव्य के बाद दो सौतेले बेटों और अपने एकमात्र पुत्र के साथ श्रीनगर में आकर रहने लगीं। महिलाओं के विकास के लिये सबसे पहले महिलाओं को एकजुट करने के उद्देश्य से इन्होंने कीर्तन मंडली बनाई और उसके माध्यम से महिलाओं को पढ़ने के लिये प्रोत्साहित किया। वे स्वयं इलाहाबाद गई, वहां से विशेष अनुमति लेकर प्रौढ महिलाओं और बाल विधवा स्त्रियों की उम्र कम करवा कर उन्हें स्कूल में भर्ती कराया। श्रीनगर गढ़वाल का जिला परिषद स्कूल १९४६ तक पांचवीं कक्षा तक ही था, उसमें सह शिक्षा भी थी, फिर वह गवर्नमेंट कालेज कक्षा सात तक बना, जिसमें रणजीत काम्बोज पहली प्रधानाचार्या थीं। उनकी मदद से रेवती जी ने गांव से लड़कियों को बुला-बुला कर पढने के लिये प्रेरित किया। वहां दूर-दूर गांव से आकर लड़कियां पढने लगीं, जब वहां आठवीं कक्षा खुली तो छात्राओं को पढ़ाने के लिये सर्वप्रथम शिक्षिका देवेश्वरी खंडूड़ी थीं, जो रेवती जी के मार्गदर्शन में पढ़ाने लगीं और स्वयं भी आगे पढ़ती रहीं।
जब श्रीनगर में इंटर कालेज खुला तो स्कूल को रुद्रप्रयाग स्थानान्तरित कर दिया गया। उस समय देवेश्वरी खंडूड़ी मात्र १४ वर्ष की किशोरी विधवा थीं। अतः रेवती उनियाल लखनऊ गई और उन्होंने शिक्षा विभाग से जाकर कहा कि देवेश्वरी अकेले रुद्रप्रयाग नहीं जायेगी, वह श्रीनगर में रहकर ही नौकरी करेगी, चाहे उसे वेतन मिले या नहीं, इस प्रकार से उस असहाय किशोरी को अपने संरक्षण में रखा। उस समय संस्था की प्रत्येक सदस्या का २५ पैसे अनिवार्य सदस्यता शुल्क रखा गया था, स्वेच्छा से अधिक भी दे सकते थे। आज से लगभग ५०-५५ साल पहले जब कि पैसे का सर्वथा अभाव था, यह संस्था परस्पर चन्दा करके अपनी अर्थव्यवस्था को सुरक्षित रखती थी। श्रीनगर में जब सर्वोदयी नेता आये तो रेवती जी से उनका परिचय हुआ। समाज सेविका रेवती को उन्होंने चरखे दिये, लगभग १९४८-५० के आस-पास इन्होंने चरखा संघ खोला। सर्वोदयी नेता इन्हें कच्चा माल ला कर देते थे, तभी से वे “मंत्राणी” के नाम से प्रसिद्ध हुईं, इनकी देख-रेख में तैयार किया गया पक्का माल सर्वोदयी नेताओं को दिया जाता था।
१९६० के नशा विरोधी आन्दोलन में भी रेवती जी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया, उस समय उन्होंने हरिजन बस्ती धुनार खोला, श्रीनगर गढ़वाल में घर-घर जाकर शराबबन्दी के लिये कार्य किया और कई परिवारों को नशे के कारण नष्ट होने से बचाया। कालान्तर में ये सर्वोदयी नेताओं से परिचित हुईं, इन्होंने अपने महिला संघ, जिसमें देवेश्वरी खंड़ूडी, चंदनी काला, दुर्गा देवी खंडूड़ी, रामेश्वरी देवी, सुधा, शकुंतला देवी, तृप्ता देवी गैरोला, बच्ची देवी तथा नगर की अन्य जागरुक महिलायें सम्मिलित थीं। इन्होंने शराब के विरोध में जगह-जगह पर प्रदर्शन किये, जुलूस निकाले, शराब की दुकानों पर श्रीनगर और पौड़ी में अनेक बार धरने दिये और शराब की दुकानें बन्द करवाई। श्रीनगर में ठेके पर दी गई देसी शराब की दुकान बन्द तो हो गई, लेकिन चोरी-छिपे पिछवाड़े से बिक्री जारी रही, तो मंत्राणी जी ने दुकान पर ताला लगा दिया और पुलिस अधीक्षक को तार भिजवाया कि दुकान पर ताला डाल दिया है, इसकी जिम्मेदारी मैं लेती हूं, इसके विरुद्ध यदि कोई कार्रवाई करनी है तो मुझ पर कर लें। परिणामतः देशी शराब की दुकान बन्द करवा दी गई।
श्रीमती उनियाल रेडक्रास की सेक्रेटरी भी रहीं, सुश्री फर्ले जब ब्रिटेन से श्रीनगर तथा पौड़ी भ्रमण पर आई तो उन्होंने रेवती जी के कार्य की अत्यन्त सराहना की। रेवती जी ने पौड़ी, श्रीनगर, चमोली, रुद्रप्रयाग, नन्दप्रयाग के गांवों में घूम-घूम कर महिला मंडलों की स्थापना की। महिलाओं को लेकर ये जुलूस निकालती थीं, हरिजनों के उद्धार के लिये भी इन्होंने महत्वपूर्ण कार्य किये।
श्रीमती रेवती उनियाल के राष्ट्रीय, समाजिक, पारिवारिक और धार्मिक कार्यों की लम्बी सूची है, वे ऊपर से कठोर किंतु अति संवेदनशील हृदय, परदुःख कातर, अत्यन्त सरल, कर्मनिष्ठ, समाजसेवी महिला थीं। कठोर परिश्रम के कारण वे बाद में अस्वस्थ रहने लगीं और लगभग ६६-६७ वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।
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