उत्तराखण्ड की अपनी एक समृद्ध और गौरवशाली सांस्कृतिक परम्परा है। किसी भी सभ्यता और संस्कृति के लिये जरुरी है उनकी सांस्कृतिक गतिविधिया और इनके लिये आवश्यक होते हैं सुर और ताल, सुर जहां कंठ से निकलते हैं वहीं ताल के लिये वाद्य यंत्रों की आवश्यकता होती है। हमारे पुरखों ने स्थानीय सुरों के आधार पर स्थानीय वाद्य यंत्र भी विकसित किये तो आइये हम बात करते हैं अपने वाद्य यंत्रों पर।
हुड़का- लोक वाद्यों में हुड़का कुमाऊं में सर्वाधिक प्रयोग में लाया जाता है। स्थानीय देवी-देवताओं के जागर के साथ ही यह विभिन्न उत्सवों, लोक गीतों और लोक नृत्यों में यह प्रयुक्त होता है। इसका मुख्य भाग लकड़ी का बना होता है, जिसे अन्दर से खोखला कर दिया जाता है, दोनों ओर के सिरे बकरे के आमाशय की झिल्ली से मढ़कर आपस में एक-दूसरे की डोरी से कस दिया जाता है, लकड़ी के इस भाग को स्थानीय भाषा में नाई (नाली) कहते हैं, इसे बजाते समय कंधे में लटकाने के लिये, इसके बीच (कमर के पास) से कपड़े की पट्टी को डोरी से बाढ दिया जाता हि। बजाते समय कपड़े की पट्टी का खिंचाव हुड़के के पुड़ों व डोरी पर पड़ता है, जिससे इसकी आवाज संतुलित की जाती है, आवाज का संतुलन एवं हुड़के की पुड़ी पर थाप की लय पर वादक को विशेष ध्यान रखना होता है। हुड़का जागा या जागर लगाने का एक प्रमुख वाद्य है, कुमाऊं के स्थानीय देवता गंगनाथ का जागर केवल हुड़के पर ही लगाया जाता है। बैसी में हुड़का प्रयोग में नहीं आता लेकिन ३ से ५ दिन के जागर में हुडके का ही प्रयोग होता है। हुडके का मुख्य भाग नाली का निर्माण विशेष लकड़ी से किया जाता है, बरौं व खिन अथवा खिमर की लकड़ी से बने हुडके की नाली विशेष मानी जाती है-
“खिनौक हो हुड़ुक, दैण पुड़ हो बानरौक, बौं पुड़ हो लंगूरोक, जभत कै तौ हुड़्क बाजौल, उ इलाकाक डंडरी बिन न्यूतिये नाचण लागाल”
अर्थात, खिन की लकड़ी से निर्मित हुडके की नाली हो, दांया पूड़ा बन्दर की खाल का बना हो, बांई ओर का पूड़ा लंगूर की खाल का बना हो, ऎसे हुड़के में जब जगरिय के हाथों से थाप पड़ेगी तो उस क्षेत्र के जितने भी डंगरिये हैं, बिना निमंत्रण दिये ही नाचने लगेंगे।
बिणाई- बिणाई मुख्यतः उत्तराखण्ड की ग्रामीण महिलाओं द्वारा बजाया जाने वाला एक लोक वाद्य है। बिणाई लोहे से बना एक छोटा सा वाद्य है, जिसे महिलायें उसके दोनों सिरों को अपने दांतों के बीच में दबाकर बजाती हैं। इन दोनों सिरों के बीच लोहे की एक पतली व लचीली पत्ती लगी होती है। जिसे अंगुली से हिलाने पर कम्पन पैदा होता है, इस कम्पन से वादक के श्वांस की वायु टकराने पर एक सुरीले स्वर की उत्पत्ति होती है। श्वांस लेने और छोड़ने पर इसकी टंकार में विविधता आती है। श्वांस के कम-बाकी दबाव से इसे और भी सुरीला बनाया जा सकता है। जिससे ऎसा विरही संगीत पैदा होता है जो घंटों तक वादक और श्रोता को मंत्रमुग्ध कर देता है। इस वाद्य को स्थानीय लोहार बनाते हैं। वर्तमान में यह वाद्य यंत्र विलुप्त होने की कगार पर है।
घान, घाना या घानी मंदिरो में जो घंटी चढ़ाई जाती है, उसके सस्ते स्वरुप को घान कहा जाता है, यह तांबे की पतली चादर से बनाया जाता है और इसके अन्दर एक लोहे की मुंगरी होती है, जो तांबे के बाहरी खोल से टकराने पर बहुत कर्णप्रिय स्वर उत्पन्न करती है। यह देखने में उल्टे डिब्बे जैसी होती है और इसके ऊपर एक घुण्डी लगी होती है, जिसे रस्सी के सहारे जानवरों के गले में बांधा जाता है। बकरी, गाय और भैंस के गले में यह बाधी जाती है, जिसके संगीत में यह पशु खो जाते है और अपनी धुन में मस्त होकर चरते रहते हैं और फसल का नुकसान नहीं करते और अपने झुंड से इधर-उधर भी नहीं जाते हैं। बैलों के गले में भी इसे बांधा जाता है, जिससे खेत जोतते समय उनकी एकाग्रता बनी रहती है। इसे जानवरों को संगीत के माध्यम से बांधे रहने के लिये हमारे पुरखों ने विकसित किया।
घुंघरु- घुंघरु वैसे तो मुख्यतः नृत्य का वाद्य है, लेकिन उत्तराखण्ड में इसे और जगह भी इस्तेमाल किया जाता है, वैसे तो अभी गांवों में भी बच्चों के पांव में इन्हें बांधा जाता है। उत्तराखण्ड में इसे जांठ (लाठी) में बांधा जाता था, जिससे रास्ते में आने वाले सांप, बिच्छू आदि इसकी आवाज सुनकर समीप न आंये। साथ ही पैदल चलने वाले का मन भी लगा रहता था और अकेले चलने में उसे बोरियत भी नहीं होती थी, लोकगीतों में भी इसे उदधृत किया गया है-
जांठी को घुंघुर सुवा, जांठी को घुंघुर,
कैथे कुनु दुख-सुख, कौ दिछ हुडुर।
इसके अलावा इसे महिलाये भी अपनी दांतुली में बांधा करती थी जो घास काटते समय उनका मन भी लगाये रहती थी और घास में छिपे सांप बिच्छुओं को भी दूर भगाती थी, ऎसी दरांती को छुणक्यानी दांतुली कहा जाता था, छोटी बच्चियों के लिये छोटी दांतुली बनाई जाती थी, उसमें भी घुंघरु लगाये जाते थे।
ओ! मेरी घस्यारी वे, दांतुली को छुड़का बाजो,
दांतुली छुणक्याली वे दातुली को छुडका बाजो
डौंर- डौंर जागरों और मांगलिक कार्यों में बजाया जाने वाला एक वाद्य है, यह डमरु से मिलता हुआ एक वाद्य यंत्र है। इसे एक ओर लकड़ी के सोटे और दूसरी ओर से हाथ से बजाया जाता है। इसका प्रचलन गढ़्वाल में ज्यादा किया जाता है, इसका आकार चपटे वर्गाकार डमरुनुमा होता है जो सानण या खमिर की लकड़ी से बना होता है और इसके दोनों सिरों पर बकरे, घुरड़ या कांकड़ की खाल लगाई जाती है। पर्वतीय विद्वान मानते हैं कि डौंर भगवान शिव जी के डमरु का ही एक रुप है। कुमाऊं में भी जहां घन्याली लगाई जाती है, वहां भी इसका प्रयोग किया जाता है। डौंर के साथ कांसे की थाली को भी बजाया जाता है, डौंर का वादन सिर्फ ब्राह्मण पुरोहित द्वारा ही किया जाता है।
विजयसार का ढोल- ढोल उत्तराखण्ड का पारम्परिक वाद्य है, शादी-विवाह, देवताओं के जागर और समस्त मांगलिक कार्यों में ढोल का इस्तेमाल किया जाता है, यह विजयसार की मजबूत लकड़ी का बना होता है, दो-ढाई फीट लम्बे और एक-डेढ़ फीट ऊंची लकड़ी को पहले अन्दर से खोखला किया जाता है और बांये पुड़े में बकरी की पतली खाल और दांयें पुडे़ में भैंस की खाल का प्रयोग किया जाता है और दोनों पुडों को आपस में डोरियों से कसा जाता है। ढोल बजाने वाले लोक कलाकार को देवताओं का प्रतिनिधि माना जाता है, वहीं जागर के समय देवताओं का आह्वान करता है। बैसी लगाते समय इसे बजाने वाले को बावन वीर, सोलह सौ मसाण व तैंतीस कोटि देवताओं का गुरु मानकर “गुरु धरमीदास” भी कहा जाता है। वह इस ढोल में २२ तरह की ताल बजाता है। छलिया नृत्य का यह प्रमुख वाद्य है और कई बार ढोल वादकों द्वारा ढोल बजाने के साथ ही कई मुद्राओं का प्रदर्शन किया जाता है, जिसे ढोल नृत्य भी कहते हैं।
नगाड़ा (दैन दमुवा)- दमुवा दो प्रकार का होता है, एक दमुवा, जो क्यान-क्यान की आवाज करता है, इसे बौं दमुं भी कहते हैं और दूसरा दैन दमुवा होता है जो घ्यान्न-घ्यान्न कर गर्जना के स्वर को पैदा करता है, इसे दैन दमुं भी कहते हैं, क्योंकि यह दाहिनी ओर से बजाया जाता है। हम पहले इसी की बात करेंगे। यह तांबे या अष्ट धातु का बना होता है इसका ऊपरी व्यास ज्यादा होता है। इसके ऊपर ४-५ साल के भैंसे की खाल की मढ़ाई की जाती है और इसे कसने के लिये भैंस की आंतों का प्रयोग किया जाता है। इसकी गर्जना को बरकरार रखने के लिये बजाने से पहले इसके पूड़े पर घी का लेप किया जाता है और आग के सामने इसको आंच दिलाई जाती है ताकि घी अन्दर तक चला जाय। इसे लकड़ी के दो मोटे और मजबूत सोटों से बजाया जाता है। बौं दमुं- यह नगाड़े की तरह ही होता है, लेकिन यह थोड़ा छोटा होता है और ढोल तथा नगाड़े के सहायक वाद्य के रुप में बजाया जाता है। यह भी तांबे का बनता है और इसके मुंह पर भी भैंस की खाल मढी़ जाती है और इसके पुडों को भी जानवरों की आंतो से कसा जाता है, लेकिन इन्हें स्थायी रुप से कस दिया जाता है, इसे भी लकड़ी के पतले सोटों से बजाया जाता है, इसमें से क्यान, क्यान्न की आवाज आती है।
मुरुली- उत्तराखण्ड के लोक वाद्य की बात मुरुली के बिना पूरी नहीं हो सकती है। मुरुली से निकली न्योली की तान सुनकर आज भी आंखों में आंसू आ जाते हैं, बांसुरी या मुरुली रिंगाल के पुष्ट तनों से बनाई जाती है यह कुशल कारीगर ही बना पाते हैं। रिंगाल के एक-डेढ़ फुट के तने पर ६ छः छेद किये जाते हैं और उसमें श्वांस फूंककर इन छेदों से स्वर निकाले जाते हैं। यह पर्वतीय क्षेत्र का लोकप्रिय वाद्य है, जंगल में गाय और जानवर चराते समय ग्वाला जब तान छेड़ता है तो आदमी ही क्या जानवर भी इसकी धुन पर मंत्र-मु़ग्ध हो जाते हैं। यह सिर्फ ग्रामीण लोगों का ही प्रिय वाद्य नहीं है, कुमाऊ के स्थानीय देवता कलबिष्ट और गंगनाथ जी का भी यह प्रिय वाद्य रहा है।
जौंया मुरुली- जौंया कुमाऊनी में जुड़वा को कहा जाता है और जौंया मुरुली का अर्थ भी जुड़वा मुरुली ही है। इसमें एक मुरुली से एक स्वर निरन्तर निकलता है और दूसरी से वह स्वर निकलता है, जिसे वादक बजाना चाहता है। इस मुरुली को बजाना सामान्य मुरुली से कहीं ज्यादा कठिन है साथ ही इसे बनाना भी कठिन है। रिंगाल के दो तनों को ऎसे स्वच्छ तालाब में डाला जाता है, जिसमें भंवर हो, यह दोनों तने इस भंवर में घूमते रहते हैं और कुछ दिनों बाद आपस में चिपक जाते हैं, फिर जौंया मुरुली का निर्माण किया जाता है। बांई ओर के रिंगल के डंके को प्रकृति का प्रतीक माना जाता है और इसमें तीन छेद किये जाते हैं, यह छेद सत, रज और तम के प्रतीक माने जाते हैं। दांयी ओर के डंके में पाछ छेद किये जाते हैं, पुराने जानकार मानते हैं कि पांच छेद वाला डंक पंचतत्व से बनी देह का प्रतीक है। इसमें मुरुली की तरह लोकगीत नहीं बजते इसमे मात्र चार धुनें ही बजाई जा सकती हैं-
१- रंगीली धुन- यह एक रसिक धुन होती है, कहा जाता है कि गंगनाथ जी इसे बजाया करते थे।
२- वैरागी धुन- यह वैरागी धुन है, कहा जाता है कि इस धुन को सुनने के बाद आम आदमी में भी वैराग की भावना आ जाती है।
३- उदासी धुन
४- जंगली धुन- इसे ग्वालों द्वारा बजाया जाता है, इसे भैंसिया धुन भी कहा जाता है। कहते हैं कि इस धुन से जानवर सम्मोहित हो जाते हैं और ग्वाला अपनी धुनों से ही उन्हें निर्देश देता था।
अब इन धुनों और इस वाद्य को बजाने वाले काफी कम लोग रह गये हैं, वैसे भी बुजुर्गों द्वारा इसे बजाये जाने से मना किया जाता है, कहा जाता है कि इस मुरुली की धुन परियो को अच्छी लगती है, जिनके प्रभाव में बजाने वाला व्यक्ति भी आ जाता है।
भोंकर- भोंकर, तुरुही की तरह का एक प्राचीन और पवित्र वाद्य है, यह तांबे का लगभग ४-५ फीट लम्बा एक खोखला यंत्र है, जिसमें फूंककर बजाया जाता है, जहां से इसमें फूंक मारी जाती है, वहां पर इसके मुंह का व्यास १ इंच तक का होता है और अंतिम सिरे पर इसका व्यास ५ इंच तक हो जाता है, इसे पहले जमीन की ओर मुंह करके बजाया जाता है, जिसमें से भों-भों की ध्वनि निकलती है और ऊपर उठाने पर इससे पोंपों की ध्वनि आती है, इसीलिये इसे भोंकर कहा जाता है। इसका प्रयोग मंदिर में पूजा के समय किया जाता है, मंदिर में भोंकर कभी भी एक नहीं रखा जाता बल्कि जोड़े मे ही रखा जाता है। इसका इस्तेमाल तिब्बती समुदाय द्वारा भी किया जाता है, वे इसे थुन्चेन कहते हैं।
तुतुरी (तुरही)-तुतुरी, उत्तराखण्ड में तुरही को कहा जाता है, यह भी तांबे की बनी होती है, इसे शादी ब्याह में बजाया जाता है, पहले लड़ाई के लिये जाते समय इसे बजाया जाता था। तुतुरी का मुंह चौड़ा होता है और पीछे का हिस्सा तांबे का पाइपनुमा होता है, बीच में एक बार इसे मोड़ दिया जाता है, जिससे स्वर घूम कर निकलता है। इसे भी फंक मार कर ही बजाया जाता है।
रणसिंग- यह वीर रस उत्पन्न करने वाला वाद्य है, यह भी तांबे का बना होता है और फन उठाये सांप जैसी इसकी आकृति होती है। इसे भी फूंक मार कर ही बजाया जाता है, इसका आकार मुंह के पास काफी कम होता है और धीरे-धीरे इसकी चौड़ाई बढ़्ती जाती है और आखिरी सिरे पर इसकी चौड़ाई काफी हो जाती है, इससे ऎसा सुर निकलता है जो विजय की भावना को मानस पटल पर रखता है। पौराणिक काल में भी असुरों पर देवतओं की विजय के समय इसे बजाया गया था, आज भी शादी- ब्याह और मांगलिक कार्यों में इसे बजाया जाता है।
मशकबीन (पीपरीबाजा)-मशकबीन के लिये कहा जाता है कि यह एक विदेशी वाद्य है, लेकिन हमारी संस्कृति में यह काफी पहले से है तो मुझे लगता है कि यह भी हमारा प्राचीन वाद्य है। मशकबीन में एक चमड़े की थैली होती है, जिसमें चार छेद किये जाते है और तीन पाइप ऊपर की ओर और एक पाइप नीचे की ओर जोड़ा जाता है। साथ ही इसमें हवा भरने के लिये एक पाइप और डाला जाता है, इस पाइप में कोई छेद नहीं किया जाता, बाकी चारों पाइपों में छेद किये जाते हैं। मशक में मुंह से फूंक मार कर हवा भरी जाती है और यह हवा कंधे पर रखे अलग-अलग तीन पाइपों में जाती है और मशक में जो पाइप नीचे की ओर होता है, जिसमें छेद बने होते हैं और इन्हीं छेदों से वादक धुनें निकालता है, इस पाइप को चण्डल कहते हैं।
धतिया नगाड़ा- धतिया का अर्थ है, धात लगाना (आवाज देना, किसी खास प्रयोजन के लिये) ऎसी जोर की आवाज लगाना जो दूर-दूर तक सुनाई दे। अपनी भयंकर गर्जना युक्त आवाज से दूर-दूर तक संदेश देने के लिये प्रयुक्त होने के कारण इसे धतिया नगाड़ा कहा जाता था।
यहां पर “था” का प्रयोग मैंने इसलिये किया क्योंकि एक-दो जगह के अलावा अब यह नगाड़े कहीं पर हों, मेरे संग्यान में तो नहीं है। पूर्वकाल में जब आज की तरह संचार के साधन नहीं थे तो राजा को अपने राज्य में कोई अकस्मात सूचना देनी होती थी या किसी राज्य पर चढ़ाई करनी होती थी या दुश्मन ने अगर राज्य में चढ़ाई कर दी तो जनता को सचेत भी करना होता था, ऎसे में जनता को सतर्क करने और युद्ध के तैयार होने की सूचना भी इसी नगाड़े से दी जाती थी। यह नगाडा़, आजकल के नगाड़ों से कहीं ज्यादा बडा़ होता था और अष्ट धातु का बना होता था। धतिया नगाड़ा बजाने के लिये सामंती काल में स्थान नियत होते थे, जो ऎसे स्थान पर स्थित होते थे, जहां से इसकी आवाज दूर-दुर तक पहुंच जाये। जिस पत्थर पर यह नगाड़ा बजाया जाता था उसे धती ढुंग कहा जाता था। ऎसा एक पत्थर वृद्ध जागेश्वर के पास आज भी स्थित है। कुमाऊं की लोक कथाओं में भी इसका वर्णन है, “बाईस भाई बफौल” में कहा जाता है कि बफौली कोट के राजा बफौल भाई जब भी इस नगाड़े को बजाते थे तो चंद राजाओं की राजधानी गढ़ी चंपावत मे, तत्कालीन राजा भारती चंद के परिवार में कुछ अनिष्ट हो जाता था। धतिया नगाड़ा बजाना भी वीरता का प्रतीक था। पूरे कुमाऊं में जागेश्वर धाम में चंद राजाओं द्वारा चढ़ाया गया धतिया नगाड़ा आज भी मौजूद है। इसका वजन १६ किलो है और इसके मुंह का व्यास लगभग १८ इंच है। उक्त धतिया नगाड़े को राजा दीपचंद ने जागेश्वर मंदिर में चढ़ाया था। इसे वृद्ध जागेश्वर के धती ढुंग से बजाया जाता था, इस स्थान से रीठागाड़ी, गंगोलीहाट, चौकोड़ी और बेरीनाग तक साफ दिखाई देता है, उस समय गंगोलीहाट में मणकोटी राजाओं का राज था। किवदंतियों के अनुसार जब यह नगाड़ा बजता था तो गंगोल में गर्भवती महिलाओं के गर्भ गिर जाते थे और जब भी यह बजता तो मणकोटी राजा के राज्य में कुछ न कुछ अनिष्ट हो जाता था।
इस नगाड़े के सहायक वाद्य के रुप में दो बिजयसार के ढोल, दो तांबे के दमुवे, दो तुरही, दो नागफणी, दो रणसिंग, दो भोंकर और दो कंसेरी बजाई जाती थी। इसे बजाने से पहले इसकी पूजा विधिवत पंडित द्वारा कराई जाती थी।
वाह, इन्हें समय पर सहेजने की आवश्यकता है, वरना यह सब विलुप्त हो जायेंगे।
Bhuat bhuat dhanyawaad…. Pahad Ki sanskirti se jodnne k liye
आपके द्वारा बहुत ही सुन्दर लेख लिखा गया है आज भी उत्तराखंड में बहुत सारे आपार सम्भवनाये आज भी है, बस जरूर है एक सही निर्णय की