उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ की अपनी à¤à¤• समृदà¥à¤§ और गौरवशाली सांसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿à¤• परमà¥à¤ªà¤°à¤¾ है। किसी à¤à¥€ सà¤à¥à¤¯à¤¤à¤¾ और संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿ के लिये जरà¥à¤°à¥€ है उनकी सांसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿à¤• गतिविधिया और इनके लिये आवशà¥à¤¯à¤• होते हैं सà¥à¤° और ताल, सà¥à¤° जहां कंठसे निकलते हैं वहीं ताल के लिये वादà¥à¤¯ यंतà¥à¤°à¥‹à¤‚ की आवशà¥à¤¯à¤•à¤¤à¤¾ होती है। हमारे पà¥à¤°à¤–ों ने सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ सà¥à¤°à¥‹à¤‚ के आधार पर सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ वादà¥à¤¯ यंतà¥à¤° à¤à¥€ विकसित किये तो आइये हम बात करते हैं अपने वादà¥à¤¯ यंतà¥à¤°à¥‹à¤‚ पर।
हà¥à¥œà¤•à¤¾- लोक वादà¥à¤¯à¥‹à¤‚ में हà¥à¥œà¤•à¤¾ कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ में सरà¥à¤µà¤¾à¤§à¤¿à¤• पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— में लाया जाता है। सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ देवी-देवताओं के जागर के साथ ही यह विà¤à¤¿à¤¨à¥à¤¨ उतà¥à¤¸à¤µà¥‹à¤‚, लोक गीतों और लोक नृतà¥à¤¯à¥‹à¤‚ में यह पà¥à¤°à¤¯à¥à¤•à¥à¤¤ होता है। इसका मà¥à¤–à¥à¤¯ à¤à¤¾à¤— लकड़ी का बना होता है, जिसे अनà¥à¤¦à¤° से खोखला कर दिया जाता है, दोनों ओर के सिरे बकरे के आमाशय की à¤à¤¿à¤²à¥à¤²à¥€ से मà¥à¤•à¤° आपस में à¤à¤•-दूसरे की डोरी से कस दिया जाता है, लकड़ी के इस à¤à¤¾à¤— को सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ à¤à¤¾à¤·à¤¾ में नाई (नाली) कहते हैं, इसे बजाते समय कंधे में लटकाने के लिये, इसके बीच (कमर के पास) से कपड़े की पटà¥à¤Ÿà¥€ को डोरी से बाढ दिया जाता हि। बजाते समय कपड़े की पटà¥à¤Ÿà¥€ का खिंचाव हà¥à¥œà¤•à¥‡ के पà¥à¥œà¥‹à¤‚ व डोरी पर पड़ता है, जिससे इसकी आवाज संतà¥à¤²à¤¿à¤¤ की जाती है, आवाज का संतà¥à¤²à¤¨ à¤à¤µà¤‚ हà¥à¥œà¤•à¥‡ की पà¥à¥œà¥€ पर थाप की लय पर वादक को विशेष धà¥à¤¯à¤¾à¤¨ रखना होता है। हà¥à¥œà¤•à¤¾ जागा या जागर लगाने का à¤à¤• पà¥à¤°à¤®à¥à¤– वादà¥à¤¯ है, कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ के सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ देवता गंगनाथ का जागर केवल हà¥à¥œà¤•à¥‡ पर ही लगाया जाता है। बैसी में हà¥à¥œà¤•à¤¾ पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— में नहीं आता लेकिन ३ से ५ दिन के जागर में हà¥à¤¡à¤•à¥‡ का ही पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— होता है। हà¥à¤¡à¤•à¥‡ का मà¥à¤–à¥à¤¯ à¤à¤¾à¤— नाली का निरà¥à¤®à¤¾à¤£ विशेष लकड़ी से किया जाता है, बरौं व खिन अथवा खिमर की लकड़ी से बने हà¥à¤¡à¤•à¥‡ की नाली विशेष मानी जाती है-
“खिनौक हो हà¥à¥œà¥à¤•, दैण पà¥à¥œ हो बानरौक, बौं पà¥à¥œ हो लंगूरोक, जà¤à¤¤ कै तौ हà¥à¥œà¥à¤• बाजौल, उ इलाकाक डंडरी बिन नà¥à¤¯à¥‚तिये नाचण लागाल”
अरà¥à¤¥à¤¾à¤¤, खिन की लकड़ी से निरà¥à¤®à¤¿à¤¤ हà¥à¤¡à¤•à¥‡ की नाली हो, दांया पूड़ा बनà¥à¤¦à¤° की खाल का बना हो, बांई ओर का पूड़ा लंगूर की खाल का बना हो, ऎसे हà¥à¥œà¤•à¥‡ में जब जगरिय के हाथों से थाप पड़ेगी तो उस कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤° के जितने à¤à¥€ डंगरिये हैं, बिना निमंतà¥à¤°à¤£ दिये ही नाचने लगेंगे।
बिणाई- बिणाई मà¥à¤–à¥à¤¯à¤¤à¤ƒ उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ की गà¥à¤°à¤¾à¤®à¥€à¤£ महिलाओं दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ बजाया जाने वाला à¤à¤• लोक वादà¥à¤¯ है। बिणाई लोहे से बना à¤à¤• छोटा सा वादà¥à¤¯ है, जिसे महिलायें उसके दोनों सिरों को अपने दांतों के बीच में दबाकर बजाती हैं। इन दोनों सिरों के बीच लोहे की à¤à¤• पतली व लचीली पतà¥à¤¤à¥€ लगी होती है। जिसे अंगà¥à¤²à¥€ से हिलाने पर कमà¥à¤ªà¤¨ पैदा होता है, इस कमà¥à¤ªà¤¨ से वादक के शà¥à¤µà¤¾à¤‚स की वायॠटकराने पर à¤à¤• सà¥à¤°à¥€à¤²à¥‡ सà¥à¤µà¤° की उतà¥à¤ªà¤¤à¥à¤¤à¤¿ होती है। शà¥à¤µà¤¾à¤‚स लेने और छोड़ने पर इसकी टंकार में विविधता आती है। शà¥à¤µà¤¾à¤‚स के कम-बाकी दबाव से इसे और à¤à¥€ सà¥à¤°à¥€à¤²à¤¾ बनाया जा सकता है। जिससे ऎसा विरही संगीत पैदा होता है जो घंटों तक वादक और शà¥à¤°à¥‹à¤¤à¤¾ को मंतà¥à¤°à¤®à¥à¤—à¥à¤§ कर देता है। इस वादà¥à¤¯ को सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ लोहार बनाते हैं। वरà¥à¤¤à¤®à¤¾à¤¨ में यह वादà¥à¤¯ यंतà¥à¤° विलà¥à¤ªà¥à¤¤ होने की कगार पर है।
घान, घाना या घानी मंदिरो में जो घंटी चà¥à¤¾à¤ˆ जाती है, उसके ससà¥à¤¤à¥‡ सà¥à¤µà¤°à¥à¤ª को घान कहा जाता है, यह तांबे की पतली चादर से बनाया जाता है और इसके अनà¥à¤¦à¤° à¤à¤• लोहे की मà¥à¤‚गरी होती है, जो तांबे के बाहरी खोल से टकराने पर बहà¥à¤¤ करà¥à¤£à¤ªà¥à¤°à¤¿à¤¯ सà¥à¤µà¤° उतà¥à¤ªà¤¨à¥à¤¨ करती है। यह देखने में उलà¥à¤Ÿà¥‡ डिबà¥à¤¬à¥‡ जैसी होती है और इसके ऊपर à¤à¤• घà¥à¤£à¥à¤¡à¥€ लगी होती है, जिसे रसà¥à¤¸à¥€ के सहारे जानवरों के गले में बांधा जाता है। बकरी, गाय और à¤à¥ˆà¤‚स के गले में यह बाधी जाती है, जिसके संगीत में यह पशॠखो जाते है और अपनी धà¥à¤¨ में मसà¥à¤¤ होकर चरते रहते हैं और फसल का नà¥à¤•à¤¸à¤¾à¤¨ नहीं करते और अपने à¤à¥à¤‚ड से इधर-उधर à¤à¥€ नहीं जाते हैं। बैलों के गले में à¤à¥€ इसे बांधा जाता है, जिससे खेत जोतते समय उनकी à¤à¤•à¤¾à¤—à¥à¤°à¤¤à¤¾ बनी रहती है। इसे जानवरों को संगीत के माधà¥à¤¯à¤® से बांधे रहने के लिये हमारे पà¥à¤°à¤–ों ने विकसित किया।
घà¥à¤‚घरà¥- घà¥à¤‚घरॠवैसे तो मà¥à¤–à¥à¤¯à¤¤à¤ƒ नृतà¥à¤¯ का वादà¥à¤¯ है, लेकिन उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ में इसे और जगह à¤à¥€ इसà¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤² किया जाता है, वैसे तो अà¤à¥€ गांवों में à¤à¥€ बचà¥à¤šà¥‹à¤‚ के पांव में इनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ बांधा जाता है। उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ में इसे जांठ(लाठी) में बांधा जाता था, जिससे रासà¥à¤¤à¥‡ में आने वाले सांप, बिचà¥à¤›à¥‚ आदि इसकी आवाज सà¥à¤¨à¤•à¤° समीप न आंये। साथ ही पैदल चलने वाले का मन à¤à¥€ लगा रहता था और अकेले चलने में उसे बोरियत à¤à¥€ नहीं होती थी, लोकगीतों में à¤à¥€ इसे उदधृत किया गया है-
जांठी को घà¥à¤‚घà¥à¤° सà¥à¤µà¤¾, जांठी को घà¥à¤‚घà¥à¤°,
कैथे कà¥à¤¨à¥ दà¥à¤–-सà¥à¤–, कौ दिछ हà¥à¤¡à¥à¤°à¥¤
इसके अलावा इसे महिलाये à¤à¥€ अपनी दांतà¥à¤²à¥€ में बांधा करती थी जो घास काटते समय उनका मन à¤à¥€ लगाये रहती थी और घास में छिपे सांप बिचà¥à¤›à¥à¤“ं को à¤à¥€ दूर à¤à¤—ाती थी, ऎसी दरांती को छà¥à¤£à¤•à¥à¤¯à¤¾à¤¨à¥€ दांतà¥à¤²à¥€ कहा जाता था, छोटी बचà¥à¤šà¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ के लिये छोटी दांतà¥à¤²à¥€ बनाई जाती थी, उसमें à¤à¥€ घà¥à¤‚घरॠलगाये जाते थे।
ओ! मेरी घसà¥à¤¯à¤¾à¤°à¥€ वे, दांतà¥à¤²à¥€ को छà¥à¥œà¤•à¤¾ बाजो,
दांतà¥à¤²à¥€ छà¥à¤£à¤•à¥à¤¯à¤¾à¤²à¥€ वे दातà¥à¤²à¥€ को छà¥à¤¡à¤•à¤¾ बाजो
डौंर- डौंर जागरों और मांगलिक कारà¥à¤¯à¥‹à¤‚ में बजाया जाने वाला à¤à¤• वादà¥à¤¯ है, यह डमरॠसे मिलता हà¥à¤† à¤à¤• वादà¥à¤¯ यंतà¥à¤° है। इसे à¤à¤• ओर लकड़ी के सोटे और दूसरी ओर से हाथ से बजाया जाता है। इसका पà¥à¤°à¤šà¤²à¤¨ गà¥à¥à¤µà¤¾à¤² में जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ किया जाता है, इसका आकार चपटे वरà¥à¤—ाकार डमरà¥à¤¨à¥à¤®à¤¾ होता है जो सानण या खमिर की लकड़ी से बना होता है और इसके दोनों सिरों पर बकरे, घà¥à¤°à¥œ या कांकड़ की खाल लगाई जाती है। परà¥à¤µà¤¤à¥€à¤¯ विदà¥à¤µà¤¾à¤¨ मानते हैं कि डौंर à¤à¤—वान शिव जी के डमरॠका ही à¤à¤• रà¥à¤ª है। कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ में à¤à¥€ जहां घनà¥à¤¯à¤¾à¤²à¥€ लगाई जाती है, वहां à¤à¥€ इसका पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— किया जाता है। डौंर के साथ कांसे की थाली को à¤à¥€ बजाया जाता है,  डौंर का वादन सिरà¥à¤« बà¥à¤°à¤¾à¤¹à¥à¤®à¤£ पà¥à¤°à¥‹à¤¹à¤¿à¤¤ दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ ही किया जाता है।
विजयसार का ढोल- ढोल उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ का पारमà¥à¤ªà¤°à¤¿à¤• वादà¥à¤¯ है, शादी-विवाह, देवताओं के जागर और समसà¥à¤¤ मांगलिक कारà¥à¤¯à¥‹à¤‚ में ढोल का इसà¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤² किया जाता है, यह विजयसार की मजबूत लकड़ी का बना होता है, दो-ढाई फीट लमà¥à¤¬à¥‡ और à¤à¤•-डेॠफीट ऊंची लकड़ी को पहले अनà¥à¤¦à¤° से खोखला किया जाता है और बांये पà¥à¥œà¥‡ में बकरी की पतली खाल और दांयें पà¥à¤¡à¥‡à¤¼ में à¤à¥ˆà¤‚स की खाल का पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— किया जाता है और दोनों पà¥à¤¡à¥‹à¤‚ को आपस में डोरियों से कसा जाता है। ढोल बजाने वाले लोक कलाकार को देवताओं का पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤¨à¤¿à¤§à¤¿ माना जाता है, वहीं जागर के समय देवताओं का आहà¥à¤µà¤¾à¤¨ करता है। बैसी लगाते समय इसे बजाने वाले को बावन वीर, सोलह सौ मसाण व तैंतीस कोटि देवताओं का गà¥à¤°à¥ मानकर “गà¥à¤°à¥ धरमीदास” à¤à¥€ कहा जाता है। वह इस ढोल में २२ तरह की ताल बजाता है। छलिया नृतà¥à¤¯ का यह पà¥à¤°à¤®à¥à¤– वादà¥à¤¯ है और कई बार ढोल वादकों दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ ढोल बजाने के साथ ही कई मà¥à¤¦à¥à¤°à¤¾à¤“ं का पà¥à¤°à¤¦à¤°à¥à¤¶à¤¨ किया जाता है, जिसे ढोल नृतà¥à¤¯ à¤à¥€ कहते हैं।
नगाड़ा (दैन दमà¥à¤µà¤¾)- दमà¥à¤µà¤¾ दो पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤° का होता है, à¤à¤• दमà¥à¤µà¤¾, जो कà¥à¤¯à¤¾à¤¨-कà¥à¤¯à¤¾à¤¨ की आवाज करता है, इसे बौं दमà¥à¤‚ à¤à¥€ कहते हैं और दूसरा दैन दमà¥à¤µà¤¾ होता है जो घà¥à¤¯à¤¾à¤¨à¥à¤¨-घà¥à¤¯à¤¾à¤¨à¥à¤¨ कर गरà¥à¤œà¤¨à¤¾ के सà¥à¤µà¤° को पैदा करता है, इसे दैन दमà¥à¤‚ à¤à¥€ कहते हैं, कà¥à¤¯à¥‹à¤‚कि यह दाहिनी ओर से बजाया जाता है। हम पहले इसी की बात करेंगे। यह तांबे या अषà¥à¤Ÿ धातॠका बना होता है इसका ऊपरी वà¥à¤¯à¤¾à¤¸ जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ होता है। इसके ऊपर ४-५ साल के à¤à¥ˆà¤‚से की खाल की मà¥à¤¾à¤ˆ की जाती है और इसे कसने के लिये à¤à¥ˆà¤‚स की आंतों का पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— किया जाता है। इसकी गरà¥à¤œà¤¨à¤¾ को बरकरार रखने के लिये बजाने से पहले इसके पूड़े पर घी का लेप किया जाता है और आग के सामने इसको आंच दिलाई जाती है ताकि घी अनà¥à¤¦à¤° तक चला जाय। इसे लकड़ी के दो मोटे और मजबूत सोटों से बजाया जाता है। बौं दमà¥à¤‚- यह नगाड़े की तरह ही होता है, लेकिन यह थोड़ा छोटा होता है और ढोल तथा नगाड़े के सहायक वादà¥à¤¯ के रà¥à¤ª में बजाया जाता है। यह à¤à¥€ तांबे का बनता है और इसके मà¥à¤‚ह पर à¤à¥€ à¤à¥ˆà¤‚स की खाल मढी़ जाती है और इसके पà¥à¤¡à¥‹à¤‚ को à¤à¥€ जानवरों की आंतो से कसा जाता है, लेकिन इनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ सà¥à¤¥à¤¾à¤¯à¥€ रà¥à¤ª से कस दिया जाता है, इसे à¤à¥€ लकड़ी के पतले सोटों से बजाया जाता है, इसमें से कà¥à¤¯à¤¾à¤¨, कà¥à¤¯à¤¾à¤¨à¥à¤¨ की आवाज आती है।
मà¥à¤°à¥à¤²à¥€- उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ के लोक वादà¥à¤¯ की बात मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ के बिना पूरी नहीं हो सकती है। मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ से निकली नà¥à¤¯à¥‹à¤²à¥€ की तान सà¥à¤¨à¤•à¤° आज à¤à¥€ आंखों में आंसू आ जाते हैं, बांसà¥à¤°à¥€ या मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ रिंगाल के पà¥à¤·à¥à¤Ÿ तनों से बनाई जाती है यह कà¥à¤¶à¤² कारीगर ही बना पाते हैं। रिंगाल के à¤à¤•-डेॠफà¥à¤Ÿ के तने पर ६ छः छेद किये जाते हैं और उसमें शà¥à¤µà¤¾à¤‚स फूंककर इन छेदों से सà¥à¤µà¤° निकाले जाते हैं। यह परà¥à¤µà¤¤à¥€à¤¯ कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤° का लोकपà¥à¤°à¤¿à¤¯ वादà¥à¤¯ है, जंगल में गाय और जानवर चराते समय गà¥à¤µà¤¾à¤²à¤¾ जब तान छेड़ता है तो आदमी ही कà¥à¤¯à¤¾ जानवर à¤à¥€ इसकी धà¥à¤¨ पर मंतà¥à¤°-मà¥à¤¼à¤—à¥à¤§ हो जाते हैं। यह सिरà¥à¤« गà¥à¤°à¤¾à¤®à¥€à¤£ लोगों का ही पà¥à¤°à¤¿à¤¯ वादà¥à¤¯ नहीं है, कà¥à¤®à¤¾à¤Š के सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ देवता कलबिषà¥à¤Ÿ और गंगनाथ जी का à¤à¥€ यह पà¥à¤°à¤¿à¤¯ वादà¥à¤¯ रहा है।
जौंया मà¥à¤°à¥à¤²à¥€- जौंया कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤¨à¥€ में जà¥à¥œà¤µà¤¾ को कहा जाता है और जौंया मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ का अरà¥à¤¥ à¤à¥€ जà¥à¤¡à¤¼à¤µà¤¾ मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ ही है। इसमें à¤à¤• मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ से à¤à¤• सà¥à¤µà¤° निरनà¥à¤¤à¤° निकलता है और दूसरी से वह सà¥à¤µà¤° निकलता है, जिसे वादक बजाना चाहता है। इस मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ को बजाना सामानà¥à¤¯ मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ से कहीं जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ कठिन है साथ ही इसे बनाना à¤à¥€ कठिन है। रिंगाल के दो तनों को ऎसे सà¥à¤µà¤šà¥à¤› तालाब में डाला जाता है, जिसमें à¤à¤‚वर हो, यह दोनों तने इस à¤à¤‚वर में घूमते रहते हैं और कà¥à¤› दिनों बाद आपस में चिपक जाते हैं, फिर जौंया मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ का निरà¥à¤®à¤¾à¤£ किया जाता है। बांई ओर के रिंगल के डंके को पà¥à¤°à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿ का पà¥à¤°à¤¤à¥€à¤• माना जाता है और इसमें तीन छेद किये जाते हैं, यह छेद सत, रज और तम के पà¥à¤°à¤¤à¥€à¤• माने जाते हैं। दांयी ओर के डंके में पाछ छेद किये जाते हैं, पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¥‡ जानकार मानते हैं कि पांच छेद वाला डंक पंचततà¥à¤µ से बनी देह का पà¥à¤°à¤¤à¥€à¤• है। इसमें मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ की तरह लोकगीत नहीं बजते इसमे मातà¥à¤° चार धà¥à¤¨à¥‡à¤‚ ही बजाई जा सकती हैं-
१- रंगीली धà¥à¤¨- यह à¤à¤• रसिक धà¥à¤¨ होती है, कहा जाता है कि गंगनाथ जी इसे बजाया करते थे।
२- वैरागी धà¥à¤¨- यह वैरागी धà¥à¤¨ है, कहा जाता है कि इस धà¥à¤¨ को सà¥à¤¨à¤¨à¥‡ के बाद आम आदमी में à¤à¥€ वैराग की à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ आ जाती है।
३- उदासी धà¥à¤¨
४- जंगली धà¥à¤¨- इसे गà¥à¤µà¤¾à¤²à¥‹à¤‚ दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ बजाया जाता है, इसे à¤à¥ˆà¤‚सिया धà¥à¤¨ à¤à¥€ कहा जाता है। कहते हैं कि इस धà¥à¤¨ से जानवर समà¥à¤®à¥‹à¤¹à¤¿à¤¤ हो जाते हैं और गà¥à¤µà¤¾à¤²à¤¾ अपनी धà¥à¤¨à¥‹à¤‚ से ही उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ निरà¥à¤¦à¥‡à¤¶ देता था।
अब इन धà¥à¤¨à¥‹à¤‚ और इस वादà¥à¤¯ को बजाने वाले काफी कम लोग रह गये हैं, वैसे à¤à¥€ बà¥à¤œà¥à¤°à¥à¤—ों दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ इसे बजाये जाने से मना किया जाता है, कहा जाता है कि इस मà¥à¤°à¥à¤²à¥€ की धà¥à¤¨ परियो को अचà¥à¤›à¥€ लगती है, जिनके पà¥à¤°à¤à¤¾à¤µ में बजाने वाला वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿ à¤à¥€ आ जाता है।
à¤à¥‹à¤‚कर- à¤à¥‹à¤‚कर, तà¥à¤°à¥à¤¹à¥€ की तरह का à¤à¤• पà¥à¤°à¤¾à¤šà¥€à¤¨ और पवितà¥à¤° वादà¥à¤¯ है, यह तांबे का लगà¤à¤— ४-५ फीट लमà¥à¤¬à¤¾ à¤à¤• खोखला यंतà¥à¤° है, जिसमें फूंककर बजाया जाता है, जहां से इसमें फूंक मारी जाती है, वहां पर इसके मà¥à¤‚ह का वà¥à¤¯à¤¾à¤¸ १ इंच तक का होता है और अंतिम सिरे पर इसका वà¥à¤¯à¤¾à¤¸ ५ इंच तक हो जाता है, इसे पहले जमीन की ओर मà¥à¤‚ह करके बजाया जाता है, जिसमें से à¤à¥‹à¤‚-à¤à¥‹à¤‚ की धà¥à¤µà¤¨à¤¿ निकलती है और ऊपर उठाने पर इससे पोंपों की धà¥à¤µà¤¨à¤¿ आती है, इसीलिये इसे à¤à¥‹à¤‚कर कहा जाता है। इसका पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— मंदिर में पूजा के समय किया जाता है, मंदिर में à¤à¥‹à¤‚कर कà¤à¥€ à¤à¥€ à¤à¤• नहीं रखा जाता बलà¥à¤•à¤¿ जोड़े मे ही रखा जाता है। इसका इसà¥à¤¤à¥‡à¤®à¤¾à¤² तिबà¥à¤¬à¤¤à¥€ समà¥à¤¦à¤¾à¤¯ दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ à¤à¥€ किया जाता है, वे इसे थà¥à¤¨à¥à¤šà¥‡à¤¨ कहते हैं।
तà¥à¤¤à¥à¤°à¥€ (तà¥à¤°à¤¹à¥€)-तà¥à¤¤à¥à¤°à¥€, उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ में तà¥à¤°à¤¹à¥€ को कहा जाता है, यह à¤à¥€ तांबे की बनी होती है, इसे शादी बà¥à¤¯à¤¾à¤¹ में बजाया जाता है, पहले लड़ाई के लिये जाते समय इसे बजाया जाता था। तà¥à¤¤à¥à¤°à¥€ का मà¥à¤‚ह चौड़ा होता है और पीछे का हिसà¥à¤¸à¤¾ तांबे का पाइपनà¥à¤®à¤¾ होता है, बीच में à¤à¤• बार इसे मोड़ दिया जाता है, जिससे सà¥à¤µà¤° घूम कर निकलता है। इसे à¤à¥€ फंक मार कर ही बजाया जाता है।
रणसिंग- यह वीर रस उतà¥à¤ªà¤¨à¥à¤¨ करने वाला वादà¥à¤¯ है, यह à¤à¥€ तांबे का बना होता है और फन उठाये सांप जैसी इसकी आकृति होती है। इसे à¤à¥€ फूंक मार कर ही बजाया जाता है, इसका आकार मà¥à¤‚ह के पास काफी कम होता है और धीरे-धीरे इसकी चौड़ाई बà¥à¥à¤¤à¥€ जाती है और आखिरी सिरे पर इसकी चौड़ाई काफी हो जाती है, इससे ऎसा सà¥à¤° निकलता है जो विजय की à¤à¤¾à¤µà¤¨à¤¾ को मानस पटल पर रखता है। पौराणिक काल में à¤à¥€ असà¥à¤°à¥‹à¤‚ पर देवतओं की विजय के समय इसे बजाया गया था, आज à¤à¥€ शादी- बà¥à¤¯à¤¾à¤¹ और मांगलिक कारà¥à¤¯à¥‹à¤‚ में इसे बजाया जाता है।
मशकबीन (पीपरीबाजा)-मशकबीन के लिये कहा जाता है कि यह à¤à¤• विदेशी वादà¥à¤¯ है, लेकिन हमारी संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿ में यह काफी पहले से है तो मà¥à¤à¥‡ लगता है कि यह à¤à¥€ हमारा पà¥à¤°à¤¾à¤šà¥€à¤¨ वादà¥à¤¯ है। मशकबीन में à¤à¤• चमड़े की थैली होती है, जिसमें चार छेद किये जाते है और तीन पाइप ऊपर की ओर और à¤à¤• पाइप नीचे की ओर जोड़ा जाता है। साथ ही इसमें हवा à¤à¤°à¤¨à¥‡ के लिये à¤à¤• पाइप और डाला जाता है, इस पाइप में कोई छेद नहीं किया जाता, बाकी चारों पाइपों में छेद किये जाते हैं। मशक में मà¥à¤‚ह से फूंक मार कर हवा à¤à¤°à¥€ जाती है और यह हवा कंधे पर रखे अलग-अलग तीन पाइपों में जाती है और मशक में जो पाइप नीचे की ओर होता है, जिसमें छेद बने होते हैं और इनà¥à¤¹à¥€à¤‚ छेदों से वादक धà¥à¤¨à¥‡à¤‚ निकालता है, इस पाइप को चणà¥à¤¡à¤² कहते हैं।
धतिया नगाड़ा- धतिया का अरà¥à¤¥ है, धात लगाना (आवाज देना, किसी खास पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤œà¤¨ के लिये) ऎसी जोर की आवाज लगाना जो दूर-दूर तक सà¥à¤¨à¤¾à¤ˆ दे। अपनी à¤à¤¯à¤‚कर गरà¥à¤œà¤¨à¤¾ यà¥à¤•à¥à¤¤ आवाज से दूर-दूर तक संदेश देने के लिये पà¥à¤°à¤¯à¥à¤•à¥à¤¤ होने के कारण इसे धतिया नगाड़ा कहा जाता था।
यहां पर “था” का पà¥à¤°à¤¯à¥‹à¤— मैंने इसलिये किया कà¥à¤¯à¥‹à¤‚कि à¤à¤•-दो जगह के अलावा अब यह नगाड़े कहीं पर हों, मेरे संगà¥à¤¯à¤¾à¤¨ में तो नहीं है। पूरà¥à¤µà¤•à¤¾à¤² में जब आज की तरह संचार के साधन नहीं थे तो राजा को अपने राजà¥à¤¯ में कोई अकसà¥à¤®à¤¾à¤¤ सूचना देनी होती थी या किसी राजà¥à¤¯ पर चà¥à¤¾à¤ˆ करनी होती थी या दà¥à¤¶à¥à¤®à¤¨ ने अगर राजà¥à¤¯ में चà¥à¤¾à¤ˆ कर दी तो जनता को सचेत à¤à¥€ करना होता था, ऎसे में जनता को सतरà¥à¤• करने और यà¥à¤¦à¥à¤§ के तैयार होने की सूचना à¤à¥€ इसी नगाड़े से दी जाती थी। यह नगाडा़, आजकल के नगाड़ों से कहीं जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ बडा़ होता था और अषà¥à¤Ÿ धातॠका बना होता था। धतिया नगाड़ा बजाने के लिये सामंती काल में सà¥à¤¥à¤¾à¤¨ नियत होते थे, जो ऎसे सà¥à¤¥à¤¾à¤¨ पर सà¥à¤¥à¤¿à¤¤ होते थे, जहां से इसकी आवाज दूर-दà¥à¤° तक पहà¥à¤‚च जाये। जिस पतà¥à¤¥à¤° पर यह नगाड़ा बजाया जाता था उसे धती ढà¥à¤‚ग कहा जाता था। ऎसा à¤à¤• पतà¥à¤¥à¤° वृदà¥à¤§ जागेशà¥à¤µà¤° के पास आज à¤à¥€ सà¥à¤¥à¤¿à¤¤ है। कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ की लोक कथाओं में à¤à¥€ इसका वरà¥à¤£à¤¨ है, “बाईस à¤à¤¾à¤ˆ बफौल” में कहा जाता है कि बफौली कोट के राजा बफौल à¤à¤¾à¤ˆ जब à¤à¥€ इस नगाड़े को बजाते थे तो चंद राजाओं की राजधानी गà¥à¥€ चंपावत मे, ततà¥à¤•à¤¾à¤²à¥€à¤¨ राजा à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€ चंद के परिवार में कà¥à¤› अनिषà¥à¤Ÿ हो जाता था। धतिया नगाड़ा बजाना à¤à¥€ वीरता का पà¥à¤°à¤¤à¥€à¤• था। पूरे कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ में जागेशà¥à¤µà¤° धाम में चंद राजाओं दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ चà¥à¤¾à¤¯à¤¾ गया धतिया नगाड़ा आज à¤à¥€ मौजूद है। इसका वजन १६ किलो है और इसके मà¥à¤‚ह का वà¥à¤¯à¤¾à¤¸ लगà¤à¤— १८ इंच है। उकà¥à¤¤ धतिया नगाड़े को राजा दीपचंद ने जागेशà¥à¤µà¤° मंदिर में चà¥à¤¾à¤¯à¤¾ था। इसे वृदà¥à¤§ जागेशà¥à¤µà¤° के धती ढà¥à¤‚ग से बजाया जाता था, इस सà¥à¤¥à¤¾à¤¨ से रीठागाड़ी, गंगोलीहाट, चौकोड़ी और बेरीनाग तक साफ दिखाई देता है, उस समय गंगोलीहाट में मणकोटी राजाओं का राज था। किवदंतियों के अनà¥à¤¸à¤¾à¤° जब यह नगाड़ा बजता था तो गंगोल में गरà¥à¤à¤µà¤¤à¥€ महिलाओं के गरà¥à¤ गिर जाते थे और जब à¤à¥€ यह बजता तो मणकोटी राजा के राजà¥à¤¯ में कà¥à¤› न कà¥à¤› अनिषà¥à¤Ÿ हो जाता था।
इस नगाड़े के सहायक वादà¥à¤¯ के रà¥à¤ª में दो बिजयसार के ढोल, दो तांबे के दमà¥à¤µà¥‡, दो तà¥à¤°à¤¹à¥€, दो नागफणी, दो रणसिंग, दो à¤à¥‹à¤‚कर और दो कंसेरी बजाई जाती थी। इसे बजाने से पहले इसकी पूजा विधिवत पंडित दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ कराई जाती थी।
वाह, इनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ समय पर सहेजने की आवशà¥à¤¯à¤•à¤¤à¤¾ है, वरना यह सब विलà¥à¤ªà¥à¤¤ हो जायेंगे।
Bhuat bhuat dhanyawaad…. Pahad Ki sanskirti se jodnne k liye
आपके दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ बहà¥à¤¤ ही सà¥à¤¨à¥à¤¦à¤° लेख लिखा गया है आज à¤à¥€ उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड में बहà¥à¤¤ सारे आपार समà¥à¤à¤µà¤¨à¤¾à¤¯à¥‡ आज à¤à¥€ है, बस जरूर है à¤à¤• सही निरà¥à¤£à¤¯ की