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चन्द्र सिंह राही: उत्तराखण्ड की एक सांस्कृतिक थाती

स्व० चन्द्र सिंह राही जी

(स्व० चन्द्र सिंह राही जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं, वह किसी बोली भाषा से हटकर पूरे उत्तराखण्ड के ग्याता और लोककर्मी थे। दिनांक १० जनवरी को उनकी पुण्य तिथि पर याद कर रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार श्री चारु तिवारी जी)

रात के साढ़े बारह बजे उनका फोन आया। बोले, ‘त्याड़ज्यू सै गै छा हो?’ एक बार और फोन आया। मैंने आंखें मलते हुये फोन उठाया। सुबह के चार बजे थे। बाले- ‘त्याड़ज्यू उठ गै छा हो।’ उनका फोन कभी भी आ सकता था। कोई औपचारिकता नहीं। मुझे भी कभी उनके वेवक्त फोन आने पर झुझंलाहट नहीं हुई। अल्मोड़ा जनपद के द्वाराहाट स्थित मेरे गांव तक वे आये। मेरे पिताजी को वे बाद तक याद करते रहे। घर में जब आते तो बच्चों के लिये युद्ध का मैदान तैयार हो जाता। वे ‘बुड्डे’ की कुमाउनी वार से अपने को बचाने की कोशिश करते। पहली मुलाकात में पहला सवाल यही होता कि- ‘त्वैकें पहाड़ि बुलार्न औछों कि ना?’ मेरी पत्नी किरण तो उनके साथ धारा प्रवाह कुमाउनी बोलती। पानी के बारे में उनका आग्रह था कि खौलकर रखा पानी ही पीयेंगे। हमारी श्रीमती जी हर बार इस बात का ध्यान रखती और उनको आश्वस्त कराती कि यह पानी खौलकर ठंडा किया है। वे खुश रहते। मेरी दोनों बेटियां उन्हें बहुत पसंद करती थी। उन्हें ‘स्मार्ट बुड्डा’ कहती। जब भी आते बच्चों को बहुत स्नेह करते। हमारे आॅफिस में भी उनका ‘आतंक’ छाया रहता। पहाड़ी बोलनी जिसे नहीं आती उसकी शामत आ जाती। फिर उनका पूरा भाषण सुनना ही पड़ता था। जनवरी 2016 में लोक के मर्मज्ञ चन्द्रसिंह ‘राही’ जी अस्वस्थ हो गये थे। इस दौरान कई अस्पतालों में उनका इलाज चलता रहा। लेकिन बहुत प्रयासों के बाद भी वे स्वस्थ नहीं हो पाये और 10 जनवरी 2016 को इस दुनिया को अलविदा कह गये। उनके जाने का मतलब है लोक विधाओं के एक युग का अवसान। उनके गीत हमारे बीच रहेंगे। सदियों तक। हमेशा-हमेशा। उनकी तीसरी पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’ का मतलब था, सभी लोक विधाओं का एक साथ चलना। उनको समझना। उस अन्र्तदृष्टि को भी जो लोक के भीतर समायी है। वे लोक विधाओं का एक चलता-फिरता ज्ञानकोश थे। वे लोक धुनों के धनी थे। प्रकृति प्रदत्त आवाज के बादशाह भी। उनके गीतों में प्रकृति का माधुर्य है। संवेदनाएं हैं। भाषा का सौंदर्य है। बिम्ब जैसे उनके गीतों की विशेषता। शब्दों का बड़ा संसार है। उनके पास लोक की पुरानी विरासत थी। नये सृजन के लिये खुले द्वार भी। लोक में बिखरी बहुत सारी चीजों को समेटने की दृष्टि भी। वे लोक गायक थे। गीत लिखते और गाते थे। संगीत से उनका अटूट रिश्ता रहा। लोक वाद्यों पर उनका अधिकार था। कोई लोकवाद्य ऐसा नहीं है जिसे उन्होंने न बजाया हो। वे उत्तराखंड के हर लोकवाद्य पर अधिकारपूर्वक बोल सकते थे। ‘राही’ जी लोक विधाओं के अन्वेषी थे। लगभग तीन हजार से अधिक लुप्त होते लोकगीतों का संकलन उनके पास था। गढ़वाली और कुमाउंनी भाषा पर उनका समान अधिकार था। इन सबके साथ ‘राही’ जी हमारी सांस्कृतिक धरोहर के सबसे प्रबल पहरेदार थे। एक सरल इंसान। दरअसल ‘राही’ जी की अपनी खूबियां थीं।

चन्द्रसिंह ‘राही’ जी से मुलाकात कब हुई यह कहना बहुत कठिन है। लगता था कि दशकों से एक-दूसरे को जानते थे। उम्र का इतना बड़ा फासला होने के बावजूद उन्होंने कभी उस अन्तर को प्रकट नहीं होने दिया। उनके साथ उस दौर में ज्यादा निकटता हो गयी जब मैं ‘जनपक्ष’ पत्रिका का संपादन कर रहा था। कभी भी, किसी भी समय उनका फोन आ सकता था। वह सुबह पांच बजे भी हो सकता था, रात के 12 बजे भी। बहुत आत्मीयता से वे कुमाउनी में बात करते थे। दो साल पहले अपने गृह क्षेत्र द्वाराहाट के कफड़ा में एक कार्यक्रम में शामिल होने गया। चन्द्रसिंह ‘राही’ भी साथ थे। पता चला कि वहां रामलीला भी हो रही है। आयोजकों ने कहा कि आप रामलीला का उद्घाटन कर दो। हमें भी रामलीला देखनी थी चले गये। लोगों को पता नहीं था कि मेरे साथ कौन हैं। मैंने मंच में जाकर घोषणा की कि रामलीला का उद्घाटन चन्द्रसिंह ‘राही’ करेंगे। और स्पष्ट करते हुए बताया कि ये वही ‘राही’ जी हैं जिन्होंने ‘सरग तारा जुनाली राता…’, ‘हिल मा चांदी को बटना…’, जैसे गीत गाये हैं। पूरा पंडाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज गया। रामलीला तो छोड़िये पहले गीतों की फरमाइश आ गयी। पुरानी पीढ़ी के लोग कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि सत्तर के दशक में जिस गायक को रेडियो पर सुना था उसे कभी सामने भी देख पायेंगे। ऊपर से धारा प्रवाह कुमाउनी बोलने से वे लोगों के चहेते बन गये। मैं उन्हें कई आयोजनों में अधिकारपूर्वक अपने साथ ले गया। वे जहां भी गये अपने गीतों से लोगों के दिलों में जगह बना आये। ‘राही’ जी को ‘जौनसार’ से लेकर ‘जौहार’ तक की लोक विधाओं में महारत हासिल था।

सत्तर का दशक। हम तब बहुत छोटे थे। दूरस्थ गांवों में मनोरंजन के कुछ ही साधन थे। रामलीला और स्थानीय स्तर पर लगने वाले मेले-ठेले। हमारे क्षेत्र में दो मेले लगते थे- ‘स्याल्दे-बिखौती’ और ‘बग्वाल मेला।’ चैत-बैसाख में रातभर गांवों में झोड़े-चांचरी की धूम रहती। गांव से दूर जंगल को जाती महिलाओं की लंबी कतारें ‘झोड़े’ के रंग में अपना रास्ता तय करती थी। उनके लिये यह लोकगीत जीवन का संगीत था। आगे बढ़ने की ताकत, सहयोग और सहकारिता के साथ चलने का दर्शन भी। गांव में रेडियो थे, लेकिन कुछ ही घरों में। कुछ मिलट्री वाले अपने घर के बाहर ऊंची आवाज में रेडियो लगा देते। हमारे घर में भी रेडियो था। मेरे पिताजी बग्वालीपोखर इंटर कालेज में प्रधानाचार्य थे। हम लोग स्कूल में बने आवास में ही रहते थे। मेरी ईजा दो मंजिले मकान की बड़ी सी खिड़की में बैठकर शाम को रेडियो लगाती। उसमें आकाशवाणी लखनऊ, नजीबाबाद, दिल्ली और रामपुर से गीत प्रसारित होते। ‘गिरि गुंजन’, ‘उत्तरायण’ और दिल्ली से प्रसारित होने वाला ‘फौजियों के लिये फरमाइशी कार्यक्रम’ हमारे लिये दिलचस्प थे। ‘उत्तरायण’ जब शुरू होता तो इससे पहले एक गीत की धुन आती थी- ‘आगे कदम… आगे कदम… आगे कदम…।’ इसके शुरू होते ही हम अपने सारे खेल छोड़कर भागकर घर आ जाते। इस कार्यक्रम को सुनने। ईजा की ड्यूटी थी कि जब ‘उत्तरायण’ कार्यक्रम आता तो वह हमें ‘धात’ (जोर से आवाज) लगाती। किसी वजह से हमें इस कार्यक्रम की सूचना नहीं दे पाती तो उनके लिये नई मुसीबत खड़़ी हो जाती। हम ईजा से जिद करते कि फिर से उसी कार्यक्रम को लगाये। बेचारी ईजा क्या कर सकती थी। कार्यक्रम दुबारा नहीं आ सकता था। बहुत सारे गीत थे। कुमाउनी और गढ़वाली में। कुछ गीत आज भी कानों में उसी तरह गूंजते हैं। ‘छाना बिलोरी झन दिया बोज्यू, लागनी बिलोरी का घामा…’, ‘गरुडा भरती कौसानी ट्रेनिंगा, देशा का लिजिया लडैं में मरुला…’, ‘बाटि लागी बराता चेली भैट डोलिमा…’, ‘सरग तरा जुनाली राता, को सुणलो तेरी-मेरी बाता…’, ‘काली गंगा को कालो पाणी…’, ‘हिल मा चांदी को बटना…’, ‘रणहाटा नि जाण गजै सिंहा…’, ‘मेरी चदरी छूटि पछिना…,’ ‘रामगंगा तरै दे भागी, धुरफाटा मैं आपफी तरूलों…,’ ‘पार का भिड़ा कौ छै घस्यारी…’, ‘कमला की बोई बना दे रोटी, मेरी गाड़ी ल्हे गै छ पीपलाकोटी…’, ‘पारे भिड़ै की बंसती छोरी रूमा-झुम…’, ‘ओ परुआ बोज्यू चप्पल कै ल्याछा यस…’, ‘ओ भिना कसिके जानूं द्वारहाटा…,’ ‘धारमक लालमणि दै खै जा पात मा…।’ और भी बहुत सारे गीत थे। ‘न्यौली’, ‘छपेली’, ‘बाजूबंद’, झोड़े-झुमेलो’, ‘भगनोल’, ‘ऋतुरैण’ आदि जिन्होंने हमें लोकगीतों की एक समझ दी। इन गीतों के साथ हम बड़े हुए और इन्हें सुनकर ही हमने रामलीलाओं और स्कूल की बाल-सभाओं में खड़ा होना सीखा। यही लोकगीत हमारी चेतना के आधार रहे।

हम लोग जब दुनियादारी को समझने लगे तो इन लोकगीतों का मर्म भी समझ में आने लगा। यह भी कि बहुत सहजता से कह दी गयी बातें हमारे जीवन की संवेदनाओं से कितने गहरे तक जुड़ी हैं। इन गीतों में हमारा पूरा समाज चलता है। इन गीतों से हमने एक-दूसरे के दर्द भी जाने और दर्द के साथ जीना भी सीखा। कितनी सारी अन्तर्कथायें हैं इन गीतों के भीतर। हमारी अन्तर्कथायें। लोक की, लोक में रहने वाले समाज की। सबकी सामूहिक। व्यक्तिगत तो हो ही नहीं सकती। होती तो यह आवाज लोक से नहीं निकलती। जंगल के एकान्त से निकलने वाली ‘न्यौली’ हो या गांव से निकलने वाला ‘भगनौला’, सामूहिकता में पिरोई ‘झौड़े-झुमैलो’ की रंगत हो या ‘खुदेड़ गीत’, हमारे पारंपरिक ‘ऋतुगीत’ हों या ‘मांगलगीत’, पांडव गीत-नृत्यों से लेकर ‘रम्माण’ तक, घस्यारी के गीतों से लेकर बद्दी गीत, थड़िया, चैंफला, चांचरी, बाजूबंद, छूड़ा, जागर, लोक गाथाओं तक।

लोकवाद्य ढोल, नगाड़ा, बांसुरी, जौल्यां-मुरली, नागफनी, रणसिंगा, डफली, हुड़का, शंख, घंट, इकतारा, दोतारा, सारंगी, बिणाई, खंजरी, तुरही, भंकोरा, डौंर, थाली, डमरू, अलगोजा, मशकबीन, घुंघरू, खड़ताल, घानी, चिमटा, मजीरा, कंसेरी, झांझ तक लोक विधाओं का इतना बड़ा संसार फैला है, जिसका हर छोर हमारे अन्तर्मन को समेटे है। जितना बढ़ेगा हमारी पूरी दुनिया इसमें समा जायेगी। इसमें व्यापकता है। आत्मसात करने की शक्ति और अभिव्यक्ति की कला भी। इसलिये इसे व्यक्त करने की कितनी विधायें हैं। लोक है तो उसमें संगीत होगा। संगीत है तो जीवन होगा। उसके विभिन्न रंग होंगे। दुख के, सुख के। प्रेम और विछोह के। खुद-बाडुली के। उत्साह-उमंग के। चेतना के। कभी विद्रोह-प्रतिकार के भी। लोक से निकली हर आवाज ने समाज को प्रतिबिंबित करते सामूहिक गीतों की जो पंरपरा बनायी उसने हमें मिलकर आवाज उठाना भी सिखाया। यह आवाज तब तक निकलती रहेगी जब तक गांव बचा रहेगा। यही लोकगीतों की परंपरा के जीवित रहने की शर्त है।

तीन-साढ़े तीन दशक बाद उस ओर लौटना सुखद अतीत की स्मृतियों में खोना है। ये स्मृतियां ऐसे समय में और जीवंत हो उठती हैं जब हम लोक विधाओं को बचाने की चिंता में हैं। इस तरह की चिंता बेवजह नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि संचार और तकनीक के विकास के साथ चीजें बदलती हैं। लोक विधाओं के साथ भी यह बात लागू होती है। लोक में समय के साथ कई चीजें जुड़ती हैं, और कई चीजें बाहर भी होती हैं। इसलिये हर बदलाव को सार्थक रूप से लेना ही अपनी विधाओं को विस्तार देना होता है। शर्त एक ही है कि इस बदलाव में लोक की आत्मा नहीं मरनी चाहिये। जब हम लोक विधाओं पर बात करेंगे तो स्वाभाविक रूप से लोक के संरक्षण और संवर्धन में लगे लोगों की बात भी होगी। यह अलग बात है कि समय के साथ लोक विधाओं के सामने संकट है। सच यह भी है कि लोक विधाओं को जानने-समझने का एक नया दौर भी शुरू हुआ है। अपनी जड़ों की ओर लौटने को आतुर नई पीढ़ी ने संचार माध्यमों का सही उपयोग कर हमारी पुरानी विरासत को इंटरनेट तक पहुंचा दिया है। अब हमारे लोक का दायरा बढ़ा है। कई ऐसे पुराने गीत हैं जो आपको इंटरनेट पर मिल जायेंगे। यह भी बदलाव का एक सार्थक मुकाम है। इससे अपनी विधाओं पर नये प्रयोग का रास्ता भी निकला है।

लोक विधाओं पर बहुत सारे लोगों ने काम किया है। आकाशवाणी के जिन कार्यक्रमों का जिक्र किया गया है उनमें लोक के मर्मज्ञ केशव अनुरागी का विशेष योगदान रहा है। उन्होंने लोक की अभिव्यक्ति का जो व्यापक मंच तैयार किया उसकी नींव पर हमारे गीत-संगीत की बहुत सारी प्रतिभाओं ने अपना रचना-संसार खड़ा किया। आदि कवि गुमानी, मौलाराम, गौर्दा, गोपीदास, कृष्ण पांडे, सत्यशरण रतूड़ी, शिवदत्त सती, मोहन उप्रेती, ब्रजेन्द्र लाल साह, नईमा खान, लेनिन पंत, रमाप्रसाद घिल्डियाल ‘पहाड़ी’ के बाद घनश्याम सैलानी, डा. गोबिन्द चातक, डा. शिवानन्द नौटियाल, हरिदत्त भट्ट ‘शैलेश’, मोहनलाल बाबुलकर, अबोधबंधु बहुगुणा, कन्हैयालाल डंडरियाल, रतनसिंह जौनसारी, शेरदा ‘अनपढ़’, गोपालबाबू गोस्वामी, बीना तिवारी, चन्द्रकला, मोहन सिंह रीठागाड़ी, झूसिया दमाई, कबूतरी देवी, बसन्ती बिष्ट, गिरीश तिवारी ‘गिर्दा’, नरेन्द्रसिंह नेगी, हीरासिंह राणा आदि ने सांस्कृतिक क्षेत्र में अपना अविस्मरणीय योगदान दिया है। लोक पंरपरा को आगे ले जाने वाली पीढ़ी भी तैयार है। जागर शैली और ढोल-दमाऊ को विश्व पटल तक पहुंचाने वाले जागर सम्राट प्रीतम भरतवाण हैं तो जौनसार से रेशमा शाह, जागर शैली की हेमा करासी नेगी हैं तो विशुद्ध लोक की आवाज लिये ‘न्यौली’ गाने वाली आशा नेगी भी। अभी लोकधुनों के प्रयोगधर्मी किशन महीपाल और रजनीश सेमवाल से भी लोगों का परिचय हुआ है। अमित सागर ने राही जी की चेत्योली गाकर ‘राही’ जी को सही श्रद्धांजलि दी है। लोक पर ‘पांउवाज’ के प्रयोग भी हमें पुरानी धाती को नये संदर्भों में समझने का रास्ता निकाल रही हैं।

लोक विधाओं पर संक्षिप्त में इतनी बातें हमारे लोक की समृद्धि को तो बताती हैं, लेकिन इससे बात पूरी नहीं होती। इस पर पूरी चर्चा भी कर लें तो समाप्त नहीं होगी। यह बात शुरू ही तब हो पायेगी जब इसमें लोक विधाओं के साथ जीने वाले एक व्यक्तित्व का नाम जोड़ा जायेेगा। वह नाम है- स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’। अब ‘राही’ जी हमारे बीच में नहीं हैं। आज उनकी तीसरी पुण्यतिथि है। पिछले तीन साल से उनका ‘वेवक्त’ फोन नहीं आया- ‘त्याडज्यू, सै गै छा हो?’ कैसे सो सकते हैं। आपकी चेतना के गीत हमारे बीच में हैं। हमेशा चेतन करते रहेंगे। आपके गीत, आपका व्यक्तित्व हमें हमेशा जगाये रखेगा। वैसे ही जैसे रात के साढ़े बारह बजे और सुबह के चार बजे। आपको पूरे समाज की ओर से कृतज्ञापूर्ण विनम्र श्रद्धांजलि।

3 responses to “चन्द्र सिंह राही: उत्तराखण्ड की एक सांस्कृतिक थाती”

  1. Kavita Rawat

    स्व. चन्द्रसिंह ‘राही’ जी को श्रद्धांजलि स्वरुप दी प्रेरक प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!
    ‘राही’ जी को हार्दिक श्रद्धांजलि

  2. Rohit

    ham duniyadari ko samjhne lge to lokgeeton ka marm samjh aane lga….
    thanks

  3. Mahavir Uttranchali

    आदरणीय चारु तिवारी जी, मैं कहानीकार गजेंद्र रावत जी के साथ आपसे दो-तीन बार मिला। उन्होंने आपकी पत्रिका में छपी अपनी एक कहानी का ज़िक्र मुझसे किया था। कहानी में एकाद जगह कांट-छांट से रावत जी खिन्न थे। उनसे पता चला था कि आप ही जनपक्ष के संपादक हैं। आपका “चन्द्रसिंह राही” जी पर लिखा आलेख पढ़ा। क्या ग़ज़ब की लेखन शैली है आपकी। “राही” जी को पूरा खोलकर रख दिया आपने। भई वाह! आपकी ये बिन्दास शैली मुझे बहुत पसंद आई। “सार्थक प्रयास” के कार्यक्रम में ११ जनवरी २०१५ को राजेन्द्र भवन, आई०टी०ओ०, दिल्ली, में डॉ० सुवर्ण रावत जी के निर्देशन में एक नाटक खेला गया था “ढोल के बोल” (महावीर रवांल्टा की कहानी पर आधारित) जिसमें हमारे सुपुत्र सचिन भंडारी ने ठाकुर के लड़के ‘बाबू’ का किरदार किया था। जिसे आपने पसन्द भी किया था। इस कार्यक्रम में आप, सुप्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार पंकज बिष्ट जी के साथ मुख्य अतिथि थे। याद आया। मैं वही महावीर उत्तरांचली अदना-सा शा’इर/कवि व कथाकार।

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