कविता पोस्टर विधा के एकमात्र चितेरे पुरोधा बी०मोहन नेगी अब हमारे बीच नहीं रहे। देहरादून के एक निजी अस्पताल में उन्होने अंतिम सांसे ली। अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है। खबर सुनकर स्तब्ध हूँ, बीमोहन दा रूला गये आप। अभी तो बहुत कुछ सीखना था आपसे। लम्बी बातें करने थी।अब कौन बनाएगा हमारे लिए कविता पोस्टर !
बीमोहन दा का जाना लोकसंस्कृति के पुरोधा का असमय जाना है। जिससे एक खालीपन हो गया है। जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। उन्होने कविता पोस्टर विधा से लोक का पहली बार साक्षात्कार करवाया। इस विधा से लोकसंस्कृति को संजोने का बीडा खुद के कंधों पर उठाया। अपनी इस विधा के द्वारा कई गुमनाम लोगों से लोक का परिचय करवाया। चमोली के गोपेश्वर नगर से शुरू हुआ यह सफर 41 सालों के बाद आज थम गया है। इस जात्रा में वो अकेले ही डटे रहे। सिर में लोकसंस्कृति की छटा बिखेरती हुई टोपी, प्यारी सी लम्बी दाड़ी, चेहरे पर मनमोहक मुस्कान जिस पर हर कोई फ़िदा हो जाये अब हमें कभी भी दिखाई नहीं देगी। जीवनभर चुपचाप लोक की सेवा करते हुये चुपचाप इस दुनिया से चले गये। उनका जाना एक अपूर्ण क्षति है।
गौरतलब है कि पौड़ी जनपद के कल्जीखाल ब्लाक के मन्यारसू पट्टी गांव के नेगी परिवार ने देश की आजादी के पहले द्रोण नगरी देहरादून को अपना आशियाना बना दिया था, भले ही जब इस परिवार ने अपने पैतृक घर को छोड़ा था तो उस समय ये उनकी जरुरत थी, लेकिन इस परिवार ने अपनी संस्कृति और विरासत को कभी भी बिसराया नहीं, देहरादून में नेगी परिवार की विरासत को संभालने वाले भवानी सिंह नेगी और जमुना देवी के घर २६ अगस्त १९५२ को सबसे बड़े बेटे के रूप में बिलक्षण प्रतिभा के धनी एक बालक ने जन्म लिए, माता पिता ने इनका नाम बिरेन्द्र मोहन रखा, दो भाई और एक बहिन में ये सबसे बड़े थे, १२ वीं के बाद ये आगे की पढाई जारी नहीं रख पाये, पिताजी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने के कारण पूरे परिवार की जिम्मेदारी इनके कंधो पर आ गई, जिसके लिए इन्होने प्रिंटिंग प्रेस में कार्य करना शुरू कर दिया, बचपन से इनके अंदर कला के प्रति एक ललक सी थी, इनके मन में चित्रकार बन्ने के ख्वाहिस थी, लेकिन परिवार की जिम्मेदारी आड़े आ गयी, इन्हें भगवान् की मूर्तियाँ बेहद भाती थी, एक मूर्तिकार से इन्होने बनाने सिखाने को कहा लेकिन इन्होने मना कर दिया, इस घटना ने उनके अंदर के कलाकार को झकझोर कर रख दिया, उन्होंने ठान ली की अब जिन्दगी में जो भी करेंगे वे खुद की मेहनत से,और खुद ही ये काम सीखेंगे, देखते ही देखते इन्होने मूर्तियाँ बनाने का कार्य सीख लिया और खुद मूर्तियाँ बनाने लग गए, अपनी धुन के पक्के बीमोहन ने इसमें महारत हासिल कर ली, इसी दौरान वे शौकिया तौर पर लोगो के स्केच बनाने लग गए, और पर्यटकों के भी, जिससे उन्हें कुछ आमदानी प्राप्त हो जाती, जिसका उपयोग वे पेंटिग का सामान खरीदने में करतें, १९७१ उनके लिए खुशियाँ लेकर आया, उन्हें भारतीय डाक विभाग में नौकरी मिल गई, जहाँ उन्हें उस समय की चिटठी, पत्री, अंतर्देशी, डाक टिकट, लिफापों ने कुछ अलग करने की राह दिखाई, और उन्होंने कविता पोस्टर विधा को अपनाया, उन्हें जो भी कविताएँ पसंद आती उन पर वो कविता पोस्टर बना देते, वे दिन भर नौकरी करते और रात को जितना भी समय मिलता कविता पोस्टर बनाते।
इसी बीच इनका चयन पोस्टल अस्सिटेंट पद हेतु हुआ और इनकी इच्छा के अनुरूप इन्हें गोपेश्वर में तैनाती दी गई, गोपेश्वर आना इनकी जिन्दगी का सबसे अहम फैसला साबित हुआ, गोपेश्वर आने के बाद एक दफा इनके दोस्त और बेहद करीबी लोकसंस्कृति कर्मी और पत्रकार राजेन टोडरिया के साथ उनकी लोकसंस्कृति पर लम्बी गुफ्तगू हुई, जिसमे राजेन ने उनसे कहा की गोपेश्वर जैसे पहाड़ी जनपदों में कला और सांस्कृतिक शून्य को खत्म करने के लिए कुछ किया जाना चाहिए, इस पर बी मोहन नेगी ने कविता पोस्टर का विचार सामने रखा, जिसे राजेन ने अपनी सहमती दे दी, उस समय उनका साथ दिया बहादुर सिंह बोरा नें, जो उस समय सीएमओ कार्यालय में प्रशासनिक अधिकारी के पद पर कार्यरत थे, बहादुर सिंह भी संस्कृति प्रेमी थे,इनकी जुगलबंदी ने कविता पोस्टर प्रदर्शनी को पंख लगा दिये, १६ दिनों की मेहनत आखिरकार रंग लायी जब १४५ कविता पोस्टर तैयार हो गये,जिसमे कविता और पोस्टर के माध्यम से लोगों को सांस्कृतिक गतिविधियों और कला की जानकरी मुहैया करवाई गई, साथ ही लोगों को आकर्षित करने और जागरूक करने का बीड़ा उठाया गया, १९८४ की दिसम्बर महीने की कडकडाती ठण्ड में राजकीय स्नाक्तोतर महाविद्यालय गोपेश्वर में पहली बार कविता पोस्टर की प्रदर्शनी लगाई गई, जिसमें गढ़वाली कवियों की कविताओं से लेकर देश के जाने माने कवियों की कविताएँ भी शामिल थी, सुमित्रानंदन पन्त से लेकर कनैहया लाल डडरियाल और रविन्द्रनाथ टैगोर जैसे प्रसिद्ध कवि और लेखको की कविताएँ शामिल थी, पहाड़ों में इस तरह के पहले आयोजन ने गोपेश्वर में धूम मचा दी, लोगों ने इस आयोजन को बेहद सराहा और बी मोहन नेगी की सराहना की, इसके बाद तो बी मोहन नेगी गोपेश्वर के चर्चित चेहरे बन गये, इस आयोजन ने बी मोहन नेगी के जीवन की दिशा और दशा बदल कर रख दी,लोगों से मिले प्रोत्साहन ने बी मोहन नेगी को गदगद कर दिया, गोपेश्वर से शुरू हुये कविता पोस्टर के सफर को जो रफ्फ्तार दी वो आज भी बदस्तूर जारी है, १९९१ में मन्दाकिनी नदी के किनारे पर बसे नगर अगस्त्यमुनि में चन्द्रकुंवर बर्त्वाल के जीवन पर आधारित एक कविता पोस्टर प्रदर्शिनी का आयोजन किया गया, इस प्रदर्शनी के माध्यम से लोक ने पहली बार चन्द्रकुंवर को इतने करीब से जाना, इनके इस प्रयास को लोगों ने बेहद सराहा, १९९२ में दूरदर्शन के राजेन्द्र धस्माना के सहयोग से १४ सितम्बर को हिंदी दिवस के मौके पर दिल्ली के हिमाचल भवन में इनकी ८० कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी लगाई गई, जिस की हर किसी ने भूरी भूरी प्रसंशा की, इसके अलावा पौड़ी, श्रीनगर, देहरादून, मसूरी, नैनीताल, सहित कई जगहों में विभिन अवसरों पर इनकी कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी लग चुकी है, इसके अलावा विगत ४० सालों में सैकड़ों पत्र पत्रिकाओं में इनके स्थाई स्तभ और कविता पोस्टर छप चुकें हैं,कई पत्र पत्रिकाओं के रेखांकन संपादक भी हैं, १४५ कविता पोस्टर से शुरू हुआ यह सफर १३०० का आंकड़ा पार करने के करीब है,
लोकसंस्कृति और कला पर बी मोहन नेगी जी से लम्बी बाते होती थी। वे कहते थै की यदि कलाकार के पास आर्थिक संसाधन न हो तो उसकी कला संसाधन के आभाव में घुट घुट कर दम तोड़ देती है, जैसे कभी गढ़वाल की समृद्ध विरासत की बानगी रही काष्ठ शिल्प कला अंतिम साँसे गिन रही है, ऐसे कलाकारों और उनकी कला को बचाने के कभी कोई प्रयास नहीं किये गये, में बहुत भाग्यशाली हूँ की मुझे कभी भी आर्थिक तंगी नहीं झेलनी पड़ी वरना मेरी कला भी तिल तिल कर कहीं दफन हो जाती, साथ ही सबसे ज्यादा आभारी हूँ गोपेश्वर की जनता का जिन्होंने मुझे प्रोत्साहन दिया और आगे बढ़ने के लिए होंसला बढ़ाया, वरना जहा में आज हूँ वहां तक नहीं पहुँच पाता, आगे कहतें है की जिस भी कलाकार ने अपनी कला को ब्यवसाय के रूप में भुनाया उसकी मौलिकता खुद ही समाप्त हो गई, इसलिए उन्होंने अपनी कला को कभी भी ब्यवसायिक रूप नहीं दिया, अपनी कला में जो भी खर्च आता उसे वे खुद ही वहन करते, ४० सालों से अकेले ही अपनी कला के द्वारा लोक और उसकी संस्कृति को संजोने का कार्य कर रहें हैं, जो आने वाली पीढ़ी के लिए किसी धरोहर से कम नहीं है, नई पीढ़ी के लोगों को साहित्यिक और संस्कृति की जड़ों को मजबूत करने की वकालत करतें हैं, वे अपनी कविता पोस्टर की जात्रा में गढ़वाली, कुमाउनी, जौनसारी, रंवालटा, उर्दू, अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी, भोटिया, बांग्ला, भोजपुरी सहित कई भाषाओँ के कवि और लेखकों की कविताओं को जगह दे चुकें हैं, दो पुत्र और दो पुत्रियों के पिता बी मोहन नेगी का लोक और कला से लगाव बचपन से ही रहा है, अपने जीवन में इन्हें रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं और ब्यक्तित्व ने बेहद प्रभावित किया, जिसकी झलक उनकी कविता पोस्टर और ब्यक्तिगत जीवन में भी देखने को मिलती है, बी मोहन नेगी को बिगत 36 बरसों से करीब से जानने वाले उनके परम मित्र, लोकसंस्कृति कर्मी और साहित्यकार डॉ नंदकिशोर हटवाल बताते हैं की कला के प्रति बी मोहन नेगी जैसा जूनून, समर्पण और त्याग बिरले ही लोगों के पास होता है, अपनी कला के लिए वे खाना पीना तक भूल जाते हैं, खुद बी मोहन नेगी स्वीकारतें हैं की पेंटिंग और कविता पोस्टर बनाने के लिए उन्होंने अपने खाने से समझोता कर लिया था, क्योंकि खाना बनाने में समय ज्यादा लगता था, इसलिए वे अधिकतर रोटी चावल की जगह खिचड़ी खा कर दिन गुजारा करते थे, उनके कई दोस्त उन्हें खिचड़ी बाबा कहकर पुकारते थे, उनके खिचड़ी प्रेम पर नंदकिशोर हटवाल कहते हैं की उनकी भूख पेंटिंग और कविता पोस्टर में ही सम्माहित थी, २००९ में वे राजकीय सेवा से सेवानिवृत हुये और अब हमारे बीच नहीं रहे।
आलेख- संजय चौहान
(लेखक खोजी पत्रकार हैं और सीमान्त पीपलकोटी, चमोली में निवास करते हैं।)
सच नेगी जी का जाना एक अपूरणीय क्षति है
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें
सार्थक प्रस्तुति हेतु आपका धन्यवाद!
सच में नेगी जी बहुत अच्छा कवि अर कविता पोस्टर बनौंदा था, आज बस कुछ याद हि साथ रैगिन…