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उत्तराखंड की उद्दाम जवानी का प्रतीक और प्रकृति के श्रंगारिक उपादान बुरांश में इन दिनों फूल खिल उठने से यहां के प्राकृतिक सौंदर्य में रोमांचित कर देने वाला निखार आ गया है। बुरांश को पहाड़ के लोक जीवन में गहरी आत्मीयता मिली हुई है इसीलिए इसे राज्य वृक्ष का गौरव मिला हुआ है।
मध्यम ऊंचाई का यह सदापर्णी वृक्ष हिमालय क्षेत्र में लगभग 1500 मीटर से 3600 मीटर की उंचाई पर पाया जाता है। इसकी पत्तियां मोटी एवं पुष्प घंटी के आकार के लाल रंग के होते हैं। मार्च-अप्रैल में जब इस वृक्ष में फूल खिलते हैं तो यह अत्यन्त शोभायमान हो जाता है। बुरांश या बुरूंश के फूल रक्तिम वर्ण के बड़े ही सुन्दर एवं मनमोहक होते हैं लेकिन इनमें सुगंध नहीं होती। कवियों साहित्यकारो तथा लेखकों की प्यार भरी ललचाई नजरों ने बार-बार बुरांश के फूल को खोजा है।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपने संस्मरणों में बुरांश का बड़ा सुंदर वर्णन करते हुए लिखा है। पहाड़ियों में गुलाब की तरह बड़े-बड़े रोडोडेन्ड्रन ‘बुरूंश’ पुष्पों से रंजित लाल स्थल दूर से ही दिख रहे थे। वृक्ष फूलों से लद रहे थे और असंख्य पत्ते अपने नए कोमल और हरे परिधान में अनेक वृक्षों की आवरणहीनता को दूर करने को बस निकलना ही चाहते थे।
गढ़वाली लोकगीतों तथा कुमाऊंनी गीतों में बुरांश के फूल को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया है। कवि हरीश चन्द्र पाण्डेय ने इस रक्त वर्णिम फूल को उत्तराखंड की उद्दाम जवानी का प्रतीक बताते हुए अपनी कविता में बुरूंश का इस तरह परिचय दिया है खून को अपना रंग दिया बुरूंश ने।
बुरूंश ने सिखाया है फेफड़ों में हवा भरकर ।
कैसे हंसा जाता है कैसे लड़ा जाता है।
ऊंचाई की हदों पर ठंडे मौसम के विरूद्ध।
एक बुरूंश कहीं खिलता है खबर पूरे जंगल में फैल जाती है आग की तरह।
आ गया बुरूंश पेड़ों में अलख जगा रहा है।
उजास और पराक्रम के बीज बो रहा है।
कोटरों में बुरूंश आ गया है।
जंगल के भीतर एक नया मौसम आ रहा है।
कवि ने एक बुरूंश के कहीं जंगल में खिलने का जिक्र करते हुए अपनी कविता में कहा है कि पेड़ों में अलख जगाते हुए और उजास के संग पराक्रम के बीज बोते हुए जंगल के विस्तृत परिसर में बुरूंश का आगमन हो गया है। इसने जंगल के भीतर एक नए मौसम के आने की खबर आग की तरह फैला दी है। यही फूल फेफड़ों में भरपूर हवा समेटकर सबको हंसना सिखाता है। इस फूल ने ही ऊंचाई की हदों पर ठंडे मौसम के खिलाफ लड़ने की तकनीक उत्तराखंड के उद्दाम यौवन को बताई है। बुरूंश ने ही खून को अपना रंग दिया है। हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि ‘अज्ञेय’ अपनी प्रियतमा को बुरूंश की ओट में चुंबन की याद दिलाते हुए कहते हैं ‘याद है क्या, ओट में बुरूंश की प्रथम बार। धन मेरे मैंने जब ओंठ तेरा चूमा था।’
अज्ञेय ने कई बार पहाड़ों के चीड़ और बांज बुरांश भ्रमण करके अपनी कविताओं में वर्णन किया है। उन्होंने एक स्थान पर पहाड़ी क्षेत्र का जिक्र करते हुए अपनी अनुभूतियों को इस तरह प्रकट किया है:
‘नई धूप में चीड़ की हरियाली दुरंगी हो रही थी और बीच-बीच में बुरूंश के गुच्छे गहरे लाल फूल मानों कह रहे थे-पहाड़ के भी हृदय हैं जंगल के भी हृदय हैं।’
सुप्रसिद्ध कवि शीकांत वर्मा ने अपनी कविता में बुरूंश का वर्णन करते हुए लिखा है कि ‘दुपहर भर उड़ती रही सड़क पर मुरम की धूल। शाम को उभरा मैं तुमने मुझे पुकारा बुरूंश का फूल।’
एक गढ़वाली लोकगीत में मुखड़ी को फूल के समान बताया गया है तथा एक स्थान पर यह भी कहा गया है कि प्रियतमा के सुंदर मुखड़े को देखकर बुरांशी जल रही है अर्थात ईर्ष्या कर रही है।
लोकगीतों में बुरूंश का उल्लेख दुल्हन की डोली के रूप में अक्सर किया गया है लेकिन सुगंधहीन होने के कारण अधिक कद्र नहीं हुई। बुरांश का फूल खिलने में बड़ी उतावली दिखाता है। जंगल में यह सबसे पहले खिल जाता है। इसे खिलने में इस प्रकार उतावली रहती है कि कोई नामुराद फूल कहीं इससे पहले न खिल जाए। वैसे बुरांश का फूल जाति का खास ठाकुर है लेकिन इसकी सुगंध न जाने किस देवता ने छीन ली। एक लोकगीत के अनुसार इसे शिव के सिर पर चढ़ाए जाने की व्याकुल आकांक्षा रहती है। लोकगीत में इसका वर्णन इस प्रकार है:
‘बुरांश दादू तू बड़ा उतालू रे औरू फूल तू फूलण नी देन्दो।
जाति का तू खास ठकरौल बास तेरी कै देवन हरी।
बालिया कूण सिर शोभी बालिया शिव सिर शोभी।
बालिया बुरांश जागा-जागा बालिया बुरांश लेऊ सिरा।’
एक कुमाऊंनी गीत में प्रेमीयुगल द्वारा बुरांश के फूल बन जाने की आकांक्षा भी व्यक्त की गई है। प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता है कि चलो प्रिए बुरांश का फूल बन जाएं। चलो चम चम चमकता हुआ पानी बन जाएं। गीत इस प्रकार है:
‘हिट रूपा बुरूंशी का फूल बनी जौला चमचम मीठी तो डांडू का पानी जी जांैला।
हिलांस की जोड़ी बनी उड़ि उड़ि जौंला।’
एक मां को पर्वत शिखर पर खिला बुरांश का फूल अपनी बेटी जैसा प्रतीत होता है। मां पहाड़ के ऊंचे शिखर पर खिले हुए बुरूंश को देखकर कहती है:
‘पारा भीडा बुरूंशी फूली छौ मैं ज कूंछू मेरी हीरू अरै छौ।’
वहां उधर पहाड़ शिखर पर बुरूंश का फूल खिल गया और मैं समझी कि मेरी प्यारी बिटिया हीरू आ रही है। अरे फूलों से झकझक लदे हुए बुरूंश के पेड़ को मैने अपनी बिटिया हीरू का रंगीन पिछौड़ा समझ लिया। वह तो बुरूंश का वृक्ष है। मेरी बेटी हीरू को तो राजा का पटवारी सोने-चांदी का लोभ दिखाकर अपने साथ ले गया है। वह अब आने से रही। अब तो वह तभी आएगी जब बूढ़ा पटवारी आएगा उसी के साथ वह आएगी।
सुप्रसिद्ध कहानीकार मोहन लाल नेगी की कहानी ‘बुरांश की पीड’ की नायिका रूपदेई के मुख पर अगर किसी परदेशी ने देख लिया तो उसकी मुखड़ी शर्म से ऐसे लाल हो जाती थी जैसे उसके मुख पर बुरूंश का फूल खिल गया हो। पहाड़ में नायिका के कपोलों और होठों को परिभाषित करने के लिए बुरूंश एक लोकप्रसिद्ध उपनाम है। गढ़वाल के पुराने प्रसिद्ध कवि चन्द्र मोहन रतूड़ी ने नायिका के ओठों की लालिमा का जिक्र कुछ इस अंदाज में किया है। इस बुरांश के फूल ने हाय राम तेरे ओंठ कैसे चुरा लिए, चोरया कना ए बुरासन ओंठ तेरा नाराण।
इसी तरह एक अन्य लोकगीत में प्रेमिका सरू द्वारा अपने प्रियतम के वियोग में आत्मघात कर लेने पर उसका बावला प्रीतम बुरांश के फूल को देखकर कह उठता है ‘धार मां फूले बुरांश का फूल। मैंने जाणे मेरी सरू छ।’
कुमाऊं में जन्मे हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानंदन पंत ने यद्यपि हिन्दी कविताओं में बुरूंश के बारे में नहीं लिखा है लेकिन जब वह अपनी स्थानीय भाषा में कविता लिखते हैं तो उनकी कलम बुरूंश का अभिनंदन करना नहीं भूलती। उन्होंने बुरूंश का जो परिचय दिया है उसके अनुसार बुरूंश में दिल की आग है। उसमें जवानी का फाग है तथा उसकी रगों में नया खून प्रवाहित हो रहा है। उसमें प्यार का खुमार भी है। पंत जी कहते हैं कि जंगल में बुरूंश का अप्रतिम स्थान है। वह बेजोड़ है। उसकी बराबरी करने लायक जंगल में कोई दूसरा नहीं है।
एक अन्य लोकगीत में बुरांश के फूलों को नमक मिर्च के साथ रैमोड़ी बनाकर खाने का उल्लेख इस तरह है: ‘काफल पक्या बुया मैत की डाली हिंसर बिनाली डयांटी किनगोड़ा खाली। बमोरा पक्ला बुया तौ उच्चा काठुमां बुरांश की रैमोड़ी आली भाग्यान्यों की बाटु मां।’
इस प्रकार हम देखते हैं कि बुरांश को पहाड़ के लोक जीवन में गहरी आत्मीयता मिली हुई है। बुरांश के फूलों को यहां के लोग बड़े चाव से खाते हैं। इसका बना शर्बत रंग रूप और स्वाद में बेजोड़ होता है। बुरांश के फूलों की चटनी भी बनाई जाती है। बच्चे बुरांश के रस को चाव के साथ चूसते हैं। बुरांस के पौधों को पीस कर लेप करने से सिरदर्द दूर हो जाता है तथा इसके ताजे फूलों का रस घावों को ठीक कर देता है। पुराने घावों पर इसकी पंखुड़ियों को पीस कर लगाते हैं।
बुरांश की लकड़ी ईंधन के काम आने के साथ साथ बर्तन बनाने के काम भी आती है। इसके पो पशुओं के नीचे बिछाए जाते हैं फिर इनसे खाद बन जाती है। अत: बुरांश का पहाड़ के सामाजिक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक जनजीवन से गहरा आत्मीय संबंध है। इसे यदि यहां के सांस्कृतिक और सामाजिक एवं ऐतिहासिक जनजीवन का दर्पण कहा जाए तो अतिशंयोक्ति नहीं होगी।
* हिन्दुस्तान से साभार
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बुरांश का पहाड़ के सामाजिक सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक जनजीवन से गहरा आत्मीय संबंध है। इसे यदि यहां के सांस्कृतिक और सामाजिक एवं ऐतिहासिक जनजीवन का दर्पण कहा जाए तो अतिशंयोक्ति नहीं होगी।
– बिलकुल सही |
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dhanyavad ! mughey BURANSH KE BARE MAI JANKARI CHAHIYE THI JO AAPNE UPLABDH KARA DI,WASTSV MAIN BIRANSH,KAFAL.HISALU AADI HAMARI PAHICHAAN HAIN. EK PRATEEK HAIN,HAMARE LIYE, TABHI TOH MAINE CHUNA ‘BURANSH’ (EK PRATEEK)
Buransh floawer and tree is symbol of love, cpeaceful cultural and historical burans is identy of phari khetra.
please dont cut buransh tree save tree and save phari beuty.
बुराँश प्रतीक है, हर्ष का, उन्नति का, प्रेम का शक्ति का, विकास का, विस्तार का।
MAN AANANDIT HUVA PADKE….MAIN MUKUTMANI MASIK PATRIKA KE AGLE ANK MAIN BURANSH KA VARNAN JARUR KARUNGA ……GYAN BAANTNE K LIY AAPKA DYANVAD……SAMPADAK MUKUTMANI…..