श्री चन्दर सिंह बसेड़ा का जन्म १८७० के आस-पास पिथौरागढ जिले के भण्डारीगांव, देवलथल में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद वह सेना में भर्ती हो गये थे, उस समय प्रथम विश्व युद्ध लगभग अन्तिम चरण पर था, ब्रिटिश सेनायें अन्तिम दम तक लड़कर जर्मन और तुर्क सेनाओं को पछाड़ने का प्रयास कर रही थीं। अंग्रेज सैनिक अफसर इराक के मेसापोटामिया मैदान (आज का इराक) में तैनात तुर्क सेनाओं के मोर्चे को विफल करने के उद्देश्य से भारतीय सैनिकों की छिन्न-भिन्न टुकड़ियों को एकत्र कर रहे थे। इसी क्रम में दिसम्बर, १९१६ में बर्मा मिलेट्री पुलिस से २०० कुमाऊंनी सैनिकों को ३७ डोगरा रेजीमेन्ट में सम्मिलित कर टिगरिस नदी के कुट सेक्टर के समीप बने एम २० पोस्ट पर भेजा गया। दूसरे किनारे पर तुर्क सेनायें डटी थीं, १२ फरवरी, १९१७ को १०२ ग्रिनेडस के कप्तान क्रिस्टी के नेतृत्व में कुट क्षेत्र पर आक्रमण हुआ, जिसमें ग्रिनेडर्स को भारी नुकसान उठाना पड़ा। परन्तु दूसरे प्रयास में एम २० मोर्चे को कामयाबी मिल गई। ३७ डोगरा रेजीमेन्ट की २ कम्पनियों का उन्हें सहायता पहुंचाने तुरन्त जाना पड़ा, इसी कम्पनी में सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा तैनात थे। दजला नदी के इस सपाट तट पर आगे बढ़ रहे इन भारतीय सिपाहियों को तुर्क सेना द्वारा की गई भारी मशीनगन फायरिंग झेलनी पड़ी, जिसमें भारी जनहानि हुई, जिसमें सैनिक टुकड़ी के 16 लोग मारे गये, 57 बुरी तरह घायल हुये और एक लापता हो गये। सेना की टुकड़ी को कमाण्ड कर रहे दोनों ब्रिटिश अफसर शहीद हो चुके थे, इन नाजुक क्षणों में अपने विवेक तथा साहस का परिचय देते हुये सुबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा ने कम्पनी की कमाण्ड अपने हाथों में ले ली और तोपखाने के झण्डे को फहराते हुये, गोलियों की बौछार के बीच बढ़ते हुये फतह हासिल करके ही दम लिया। इससे तुर्क सेना का मनोबल टूट गया और ब्रिटिश सेना अपने मकसद में कामयाब हुई।
इस वीरता भरे कारनामे को अंतिम क्षण पर अंजाम देने वाले सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को युद्ध क्षेत्र में ही आई०ओ०एम० (इण्डियन आर्डर आफ मैरिट) से सम्मानित किया गया, यह भारतीय सैनिको को दिये जाने वाला उस समय का सर्वोच्च सम्मान था। उस समय तक विक्टोरिया क्रास केवल ब्रिटिश सैनिकों को ही दिया जाता था। उनके लिये जंगी इनाम अलग से घोषित किया गया, यद्यपि कुमाऊं क्षेत्र युद्ध भूमि में शौर्य के उदाहरणों से भरा पड़ा है, लेकिन शौर्य की उस परम्परा के जनक होने का श्रेय सूबेदार चन्द्र सिंह बसेड़ा को ही जाता है। श्री बसेड़ा को इस शौर्य प्रदर्शन के लिये विक्टोरिया क्रास न दे पाने की ग्लानि ब्रिटिश अधिकारियों में भी थी, इसलिये अंग्रेज अधिकारियों ने बसेड़ा जी से उनकी किसी और अभिलाषा के लिये पूछा गया। उन्होंने कहा कि मेरे पास सब कुछ है और कुमाऊंनी सैनिकों के लिये अलग से रेजीमेन्ट के गठन की इच्छा व्यक्त की, क्योंकि तब तक कुमाऊंनी सैनिकों के लिये अलग से बटालियन नहीं थी, कुमाऊं के लोगों की स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भागीदारी के कारण अंग्रेज उन्हें अपना वफादार नहीं मानते थे, इसीलिये उस समय कुमाउनी लोग फौज में जाने पर अपनी जाति लिखते नहीं थे और चन्द्र सिंह बसेड़ा भी चन्दरी चन्द के नाम से ही भर्ती हुये थे। चन्दरी चन्द जी ने ही अंग्रेज अफसरों को अहसास कराया कि कुमाऊंनी सैनिक वीर होने के साथ ही जिसका नमक खाते हैं, उनके वफादार भी होते हैं। इसी से प्रेरित होकर अंग्रेजों ने युद्धकाल में ही 1918 में 1 बटा 50 गढ्वाल राइफल्स से 3 कुमाऊं रायफल्स बनाई , यह भी सेना के इतिहास में एक अलग ही नजीर है कि युद्धकाल में ही किसी नई बटालियन का गठन किया गया हो। वर्ष 1945 में जब सेना का पुनर्गठन हुआ तो कुमाऊं रेजीमेण्ट अस्तित्व में आई। इसके साथ ही बसेड़ा जी ने रेजीमेण्ट के कार्यक्रमों में कुमांऊनी सम्मान का सर्वोच्च प्रतीक ” सफेद टोपी” पहनने की इच्छा भी प्रकट की। इस साहसी और पराक्रमी सैनिक का प्रस्ताव अंग्रेजी शासन द्वारा तुरन्त ही मान लिया। सेना से रिटायर होने बाद यह अपने गांव आ गये और एक भव्य मकान का निर्माण कराया, जिसे आज भी ठुलघर के नाम से जाना जाता है। दिनांक 09 अक्टूबर, 1926 को इनकी मृत्यु हो गई। इनके पुत्र स्व० नन्दन सिंह बसेड़ा ने भी पिता की गौरवान्वित सैनिक परम्परा को जीवित रखा और सिग्नल रेजीमेण्ट से मेजर के पद पर सेवानिवृत्त हुये, इस सैन्य परम्परा को उनके पोते श्री प्रदीप सिंह बसेड़ा ने भी जीवित रखा और कुमाऊं रेजीमेण्ट से कर्नल के पद से सेवानिवृत्त हुये। हालांकि कुमाऊं रेजीमेण्ट ने चन्दरी चन्द जी को अपने निर्माण या निर्माण की कल्पना का श्रेय कदापि नहीं दिया, लेकिन कुमाऊं रेजीमेण्ट के कल्पना शिल्पी तो वही थे, उन्हीं की वीरता से अंग्रेजों को कुमांऊनी सैनिको की वीरता और स्वामिभक्ति का एहसास हुआ, जिसकी परिणिति युद्धकाल में कुमांऊ राइफल्स के गठन के रुप में हुई। कुमाऊंनी सैनिको की वीरता और साहस को गौरवान्वित कर अलग पहचान दिलाने के उनके अतुलनीय प्रयास को हमारा नमन।
कुमाऊं रेजीमेण्ट ने चन्दरी बूबू को कभी श्रेय नहीं दिया, लेकिन हम जानते हैं और मानते हैं कि यह रेजीमेण्ट उन्हीं का सपना है।
स्वर्गीय चन्द्री चंद्र जी पूरे कुमाऊं का गौरव हैं। इन्हीं की बदौलत आज कुमाऊं रेजिमेंट का मार्ग प्रसस्त हुआ। कुछ तो खास है उस मिट्टी में, जिसने एक से बढ़कर एक महापुरुषों को जन्म दिया और घमंड कभी नहीं किया। हमारे महान पूर्वज स्वर्गीय चन्द्री चंद्र बसेड़ा जी हमेशा हमारे प्रेरणा स्रोत रहेंगे और कभी देश हमसे कुर्बानी मांगे तो उन्ही के नक्शे कदमों पर चलते हुवे हम भी इस मिट्टी, मातृभूमि पर कुर्बान हो जाएंगे।
जै हिन्द
जयभारत
जै उत्तराखंड
और नमन उस लाल को💐💐💐💐
सैल्यूट है बूबूजी को, कोटिशः नमन
हमारे बूबूजी की वीरता और समाज की चिंता को सभी से रूबरू कराने के लिये मेरा पहाड़ को साधुवाद।
बाराबीसी के गौरव चन्दरी चन्द जी को नमन
स्वर्गीय चंद्री चंद जी की स्मृति को नमन.
Pride of Barabisi. Grand salute sir
ये तो हमारे बूबू हैं। प्रणाम बूबू। आमा को देखे अच्छी तरह याद है ।लेकिन बूबू की नहीं है। हमारी कक्षा तीसरी की पढाई ,भंडारी गांव ठुलघर से ही आरम्भ हुई थी ।।गल्स स्कूल प्रांरभ हुआ था। नमन पुण्यात्मा को। नमन देवलथल।
Great salute for great soul
जय हिंद वंदे मातरम्। वीरों की धरती देवलथल पुण्य भूमि को नमन।
बाबू जी को कोटि कोटि नमन जय हो कुमाऊं रजिमैन्ट की
जय जवान जय किसान **जय भारत*****🙏💐