छलिया नृत्य हमारे उत्तराखण्ड के लोक नृत्यों में सबसे लोकप्रिय नृत्य है। यह नृत्य युद्ध के प्रतीक के रुप में ही प्रयोग किया जाता है, इसमें पुरुष प्राचीन सैनिकों जैसी वेश-भूषा धारण कर तलवार और् ढाल लेकर युद्ध जैसा नृत्य करते हैं। जिसमें उत्तराखण्ड के लोक वाद्य ढोल, दमाऊ, रणसिंग, तुरही और मशकबीन भी शिरकत करते हैं। इन सभी वाद्यों और छलिया नर्तकों की जुगलबन्दी ऐसी होती है कि आप दांतों तले अंगुली दबाने के लिये बाध्य हो जायेंगे।
छलिया नृत्य का इतिहास
छलिया नृत्य मूल में युद्ध का नृत्य है, इस नृत्य का समाज में प्रचलन विद्वानों के अनुसार अनुमानतः १० वीं सदी के आस-पास का माना जाता है। यह नृत्य युद्धभूमि में लड़ रहे शूरवीरों की वीरता के मिश्रित छल का नृत्य है। छल से युद्ध भूमि में दुश्मन को कैसे परास्त किया जा सकता है, यही इस नृत्य का मुख्य लक्ष्य है। इसी कारण इसे छल नृत्य, छलिया नृत्य और हिन्दी में छोलिया नृत्य कहा जाता है।
प्रश्न यह भी उठता है कि यह नृत्य युद्ध भूमि से समाज में कैसे आया? पूर्व काल में यह सर्वविदित ही है कि युद्ध वर्तमान के आयुधों की तरह नहीं, बल्कि आमने सामने दो राजाओं की सेना के बीच ढाल-तलवार, भाले, बरछे, कटार आदि से लड़े जाते थे। पूर्व में पर्वतीय क्षेत्र भी इस तरह के युद्धों से अछूता नहीं रहा। अगर हम अपनी विभिन्न प्रचलित तोक गाथाओं को देखें तो कहीं-कहीं पर मल्लों, पैकों के बीच मल्ल युद्ध भी होता था। जिस राजा के मल्ल जीत जाते, उसी राजा को जीता हुआ मान लिया जाता था। इस तरह के युद्ध मांडलिक राजाओं के बीच अपने राज्यों के विस्तार और अहंतुष्टि के लिये भी किये जाते थे।
मेरे विचार में इस युद्ध नृत्य का वर्तमान स्वरुप युद्ध भूमि से सर्वप्रथम सीधे राज महलों में प्रतीक युद्ध नृत्य (dumy battle dance) के रुप में आया। अकसर जब कोई राजा युद्ध जीत लेता था तो कई दिनों तक राजमहल में विजय समारोह मनाया जाता था। वीरों को पुरुस्कृत करने के साथ ही उनके युद्ध-कौशल और ढाल-तलवार नचाने की निपुणता का महीनों तक बखान होता रहता था। यह बखान बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से किया जाता था और यह काम राज दरबार के चारण {भाट} किया करते थे। भाटों द्वारा युद्ध वर्णन सुनकर राज दरबार में श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे।
कहा जाता है कि एक बार किसी विजयी राजा के दरबार में इस तरह के युद्ध वर्णन को सुनकर रानियां अभिभूत हो गईं और उन्होंने भी उस युद्ध में वीरों द्वारा दिखाई गई वीरता को प्रतीक रुप में अपनी आंखों के सामने देखना चाहा। तो राजा के आदेश पर उसके वीर सैनिकों ने स्वयं ही आपस में दो विरोधी दल बनाकर और युद्ध की वेष-भूषा पहनकर ढाल-तलवारों से युद्ध के मैदान की ही तरह प्रतीकात्मक युद्ध नृत्य करने लगे। ढोल-दमाऊं, नगाड़े, नरसिंगा आदि युद्ध के वाद्य बजने लगे और वीरों द्वारा युद्ध की सारी कलाओं का प्रदर्शन किया जाने लगा। उन्होंने इस विजय युद्ध में अपने दुश्मन को वीरता और छल से कैसे परास्त किया, इसका सजीव वर्णन उन्होने राज दरबार में किया।
राजमहल में प्रतीक रुप में किया गया यह युद्ध सभी रानियों , राजा और दरबारियों को बड़ा ही पसन्द आया। अतः समय-समय पर इस प्रतीक छलिया नृत्य का आयोजन राज दरबार में होने लगा। अति आकर्षक नृत्य, विविध ढंग से कलात्मक रुप से ढोल वादन, ढाल-तलवार द्वारा वीरों का युद्ध नृत्य समाज में अति लोकप्रिय हो गया। अपने अलौकिक आकर्षन के कारण यह नृत्य दसवीं सदी से आज तक निरंतर समाज में चलते आया है। समय के साथ-साथ इसके स्वरुप में भी थोड़ा परिवर्तन आ गया है।
राज शाही खत्म होने के बाद यह आम लोगों में यह नृत्य के रुप में लोकप्रिय हुआ और उस समय के संस्कृति कर्मियों ने इस अमूल्य धरोहर को संजोने के लिये इसे विवाह एवं शुभ अवसरों पर किये जाने की अनिवार्यता बना दी। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि दसवीं सदी से निरंतर चला आ रहा हमारी समृद्ध संस्कृति का परिचायक लोक नृत्य आज व्यवसायिकता और आधुनिकता की अंधी दौड़ में कहीं खोता चला जा रहा है।
छलिया नृत्य में ढोल वादक और उसके नृत्य की भूमिका
यह भी एक महत्वपूर्ण विषय है कि युद्ध भूमि में दरबारी दास द्वारा ढोल क्यों बजाया जाता था और उसके द्वारा युद्ध के दौरान ढोल नृत्य क्यों किया जाता था?
इस विषय में लोक विद्वानों की राय है कि यह ढोल वादक मात्र वीरों के उत्साह वर्धन के लिये ढोल नहीं बजाता था, बल्कि वह युद्ध कला में भी प्रवीण होता था। वह युद्ध भूमि में अपने राजा की सेना की स्थिति पर पूरी दृष्टि रखता था, किसी समय उसकी सेना को आगे या पीछे बढ़ना है, किस दिशा में बढ़ना है, युद्ध जीतने के लिये अब सेना को कैसी व्यूह रचना करनी है, इसका उसे पूर्ण ज्ञान होता था। महाभारत के “चक्रव्यूह” की ही तरह पर्वतीय क्षेत्रो में “गरुड़ व्यूह” “मयूर व्यूह” “सर्प व्यूह” की रचना की जाती थी। ढोल वादक इन व्यूह रचनाओं में पारंगत होता था, वह ढोल नृत्य करके संकेत में अपनी सेना को बताता था कि उसे अब युद्ध में किस प्रकार, क्या करना है, कैसे आगे बढ़ना है, कैसे पीछे हटना है, दुश्मन की सेना को कैसे घेरना है….यह सब वह सेना को अपने नृत्य और ढोल वादन के गुप्त संकेतों से बतलाता था।
वर्तमान में भी छलिया नृत्य के कई बाजे हैं, यथा-गंगोलिया बाजा, हिटुवा बाजा, बधाई का बाजा, दुल्हन के घर पर पहुंचने का बाजा, वापस गांव की सीमा पर बजने वाला बाजा आदि। इन अलग-अलग बाजों के अनुसार ही छोलिया, नृत्य करते हैं। अभी भी छोलिया नृत्य का कंट्रोल ढोल वादक के पास ही होता है, उसी की वाद्य धुनों के अनुसार यह नृत्य करते हैं।
कुछ साल पहले तक छलिया नृत्य शादी-बारात का एक अभिन्न अंग होता था. छलिया दल के साथ डांस करने में बहुत मजा आता था. छलिया दल का आकार उनकी संख्या के आधार पर निर्धारित होता है, अर्थात आप छलिया दल में ८-१० लोग चाहते हैं या १५-२०. दल में जितने ज्यादा लोग होंगे उतने ही ज्यादा नर्तक व वाद्ययन्त्र जुङेंगे. छलिया दल केवल नृत्य ही नहीं करता. एक निश्चित समय के बाद विराम लेकर दल का एक सदस्य छपेली या चांचरी के बोल गाता है और गीत खत्म होते ही पुनः द्रुतगति से ढोल-दमूं के वादन के साथ नृत्य शुरु होता है.
छलिया दल के साथ आम बाराती हाथों में रुमाल लेकर कलात्मक डांस करते हैं तो एक अद्भुत शमां बंध जाता है.
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छलिया नर्तक अब मुख्य रूप से मंच प्रदर्शन से ही जीवन निर्वाह करते हैं. देश के हर कोने में यह लोग विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं. पिथौरागढ में “छलिया महोत्सव” के नाम से एक वार्षिक आयोजन किया जाता है जिसमें उत्तराखण्ड के अलावा हिमांचल और नेपाल से भी छलिया दल सर्वश्रेष्ठ दल बनने के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं. यह आयोजन स्थानीय लोगों द्वारा उत्तराखण्ड सरकार के सहयोग से पिछले लगभग 10 सालों से किया जा रहा है.
प्रस्तुत आलेख में कुछ अंश श्री जुगल किशोर पेटशाली द्वारा लिखित “उत्तराखण्ड के लोक वाद्य” से साभार।
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