वंशीधर पाठक ‘जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥â€™ जी का जनà¥à¤® अलà¥à¤®à¥‹à¤¡à¤¼à¤¾ जनपद के दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾à¤¹à¤¾à¤Ÿ विकासखंड के नहरा, पो. मासर (कफड़ा) गांव में 21 फरवरी 1934 को हà¥à¤†à¥¤ बहà¥à¤¤ छोटी उमà¥à¤° में ही वे अपने पिता के साथ देहरादून चले गये। यही उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने अपनी पà¥à¤°à¤¾à¤°à¤‚à¤à¤¿à¤• शिकà¥à¤·à¤¾ पà¥à¤°à¤¾à¤ªà¥à¤¤ की। कà¥à¤› समय बाद वे पिता के साथ दिलà¥à¤²à¥€ चले गये। इसके बाद शिमला। यहीं वंशीधर जी ने ककà¥à¤·à¤¾ छह में दाखिला लिया। उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने 1950 में हाईसà¥à¤•à¥‚ल की परीकà¥à¤·à¤¾ पास की। उन दिनों शिमला में साहितà¥à¤¯à¤¿à¤• माहौल था। वंशीधर पाठक जी पर इसका पà¥à¤°à¤à¤¾à¤µ पड़ा। इस बीच उनके पिता फिर दिलà¥à¤²à¥€ आ गये। जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥ जी शिमला में ही रहे। उनकी कवितायें और कहानियां पतà¥à¤°-पतà¥à¤°à¤¿à¤•à¤¾à¤“ं में पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤ होने लगी। उनकी नौकरी खादी गà¥à¤°à¤¾à¤®à¥‹à¤¦à¥à¤¯à¥‹à¤— शिमला में टाइपिसà¥à¤Ÿ के रूप में लग गई। वरà¥à¤· 1955 में उनका विवाह अलà¥à¤®à¥‹à¤¡à¤¼à¤¾ की देवकी देवी से हà¥à¤†à¥¤ वरà¥à¤· 1962 में उनके मितà¥à¤° जयदेव शरà¥à¤®à¤¾ ‘कमल’ ने उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ आकाशवाणी में विà¤à¤¾à¤—ीय कलाकार के रूप में आवेदन करने को कहा। चीनी हमले के बाद à¤à¤¾à¤°à¤¤ सरकार ने उतà¥à¤¤à¤° पà¥à¤°à¤¦à¥‡à¤¶ के सीमांत जिलों के शà¥à¤°à¥‹à¤¤à¤¾à¤“ं के लिये ‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® शà¥à¤°à¥‚ किया था। जनवरी 1963 से वे ‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ में विà¤à¤¾à¤—ीय कलाकार के रूप में कारà¥à¤¯ करने लगे। इस कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® को पहले कमल और जीत जरधारी संचालित कर रहे थे। बाद में वंशीधर पाठक ‘जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥â€™ और जीत जरधारी ने इसे चलाया। जिस समय वे ‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ में आये उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ खà¥à¤¦ कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ नहीं आती थी। इसकी वजह थी कि वह बहà¥à¤¤ छोटी उमà¥à¤° में ही गांव से बाहर निकल गये थे। उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने नये सिरे से कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ सीखी।
‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® के लिये उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने बहà¥à¤¤ मेहनत और शोध किया। पहले यह कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® 15 मिनट का था। फिर आधे घंटे और बाद में à¤à¤• घंटे का हà¥à¤†à¥¤ इसकी समयावधि बढ़ने से अब कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€-गढ़वाली की कई विधाओं गीतों, वारà¥à¤¤à¤¾à¤“ं, कविता-कहानियों, नाटकों आदि के लिये अचà¥à¤›à¤¾ समय मिलने लगा। इस कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® के लिये वारà¥à¤¤à¤¾à¤•à¤¾à¤°à¥‹à¤‚, कवियों, गायकों को शामिल करने के लिये घर-घर जाते थे। उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने इसी बहाने बहà¥à¤¤ सारी पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤à¤¾à¤“ं को तलाशा। कई पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤à¤¾à¤“ं का मंच पà¥à¤°à¤¦à¤¾à¤¨ किया। पहाड़ के हिनà¥à¤¦à¥€ में लिखने वालों से कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€-गढ़वाली में लिखवाया। पहाड़ से à¤à¥€ अचà¥à¤›à¤¾ लिखने वालों को यातà¥à¤°à¤¾ वà¥à¤¯à¤¯ और पारिशà¥à¤°à¤®à¤¿à¤• देकर आकाशवाणी के सà¥à¤Ÿà¥‚डियो में बà¥à¤²à¤¾à¤¯à¤¾à¥¤ उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंडी मूल के रचनाकारों की रिकारà¥à¤¡à¤¿à¤‚ग मंगवाई। लोक à¤à¤¾à¤·à¤¾à¤“ं में नाटक-रूपक आदि à¤à¥€ पà¥à¤°à¤¸à¤¾à¤°à¤¿à¤¤ किये जाने लगे। ‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® अब पहाड़ के गांव-घरों तक सबेस लोकपà¥à¤°à¤¿à¤¯ कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® बन गया। इस कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® ने जहां के कलाकारों, रचनाकारों को मंच पà¥à¤°à¤¦à¤¾à¤¨ किया वहीं नये लोगों को पà¥à¤°à¥‹à¤¤à¥à¤¸à¤¾à¤¹à¤¿à¤¤ à¤à¥€ किया। उस दौर में उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड की बोलियों का कोई à¤à¥€ नया-पà¥à¤°à¤¾à¤¨à¤¾ कवि, लेखक, गायक, वादक, लोक-कलाकार बचा होगा जो ‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ का मेहमान न बना हो।
जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥ जी ने लखनऊ में सांसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿à¤• गतिविधियों के माधà¥à¤¯à¤® से à¤à¥€ उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड के लोक संगीत और à¤à¤¾à¤·à¤¾ को बढ़ाने में महतà¥à¤µà¤ªà¥‚रà¥à¤£ पहल की। जीत जरधारी और अनà¥à¤¯ मितà¥à¤°à¥‹à¤‚ के साथ मिलकर ‘शिखर संगम’ की सà¥à¤¥à¤¾à¤ªà¤¨à¤¾ की। इसके माधà¥à¤¯à¤® से वे कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€-गढ़वाली नाटकों और लोकà¤à¤¾à¤·à¤¾à¤“ं की पतà¥à¤°à¤¿à¤•à¤¾ के पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤¨ पर अपने को केनà¥à¤¦à¥à¤°à¤¿à¤¤ रखना चाहते थे। लखनऊ में पहली बार कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€-गढ़वाली नाटकों का मंचन हà¥à¤†à¥¤ इनमें ललित मोहन थपलियाल का ‘खाडू लापता’, नंद कà¥à¤®à¤¾à¤° उपà¥à¤°à¥‡à¤¤à¥€ का ‘मी यो गेयूं, मी यो सटकà¥à¤¯à¥‚ं’, चारॠचनà¥à¤¦à¥à¤° पांडे की हासà¥à¤¯ कविता ‘पà¥à¤‚तà¥à¤°à¥€â€™ कविता का नाटà¥à¤¯ रूपांतरण शामिल थे। ‘शिखर संगम’ जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ समय नहीं चली, लेकिन 1978 में उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने ‘आंखर’ नाम से संसà¥à¤¥à¤¾ बनाकर कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ नाटकों का सिलसिला शà¥à¤°à¥‚ किया। इस संसà¥à¤¥à¤¾ के माधà¥à¤¯à¤® से करà¥à¤‡ साल कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ à¤à¤¾à¤·à¤¾ के नाटकों के अलावा ‘आंखर’ पतà¥à¤°à¤¿à¤•à¤¾ का पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤¨ à¤à¥€ होता रहा।वंशीधर पाठक ‘जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥â€™ का पहला कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ कविता संगà¥à¤°à¤¹ ‘सिसौंण’ 1984 में आया। वरà¥à¤· 1991 में हिनà¥à¤¦à¥€ कविता संगà¥à¤°à¤¹ ‘मà¥à¤à¤•à¥‹ पà¥à¤¯à¤¾à¤°à¥‡ परà¥à¤µà¤¤ सारे’ पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤ हà¥à¤†à¥¤ उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने अपनी पहली कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ कविता ‘रणसिंग बाजौ’ 1962 में चीनी हमले के बाद लिखी। यह कविता 1969 में ‘शिखरों के सà¥à¤µà¤°â€™ में पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤¿à¤¤ हà¥à¤ˆà¥¤ दिनांक 8 जà¥à¤²à¤¾à¤ˆ, 2016 को उनका निधन हो गया और उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने अपनी देह KGMC को दान दी थी।
उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€ à¤à¤¾à¤·à¤¾ और साहितà¥à¤¯ के लिये अपना जो अमूलà¥à¤¯ योगदान दिया उसे कà¤à¥€ à¤à¥à¤²à¤¾à¤¯à¤¾ नहीं जा सकेगा, जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥ जी ने आकाशवाणी लखनऊ में रहते ‘उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£â€™ के माधà¥à¤¯à¤® से जिस तरह कà¥à¤®à¤¾à¤‰à¤¨à¥€-गढ़वाली à¤à¤¾à¤·à¤¾ के संवरà¥à¤§à¤¨ और नाटकों की शà¥à¤°à¥à¤†à¤¤ की उसने हमारी à¤à¤¾à¤·à¤¾-साहितà¥à¤¯ के लिये वà¥à¤¯à¤¾à¤ªà¤• मंच तैयार किया। हम उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड के लोक साहितà¥à¤¯ और लोक विधाओं को आगे बढ़ाने में उनके योगदान के लिये उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ याद करते हैं। यदि जिगà¥à¤¯à¤¾à¤¸à¥ जी जैसा खोजी वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿à¤¤à¥à¤µ उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£ कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® का संचालक नहीं होता तो उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–णà¥à¤¡ के कई नामचीन लोकगायक, कवि, रचनाकारों को वह मà¥à¤•à¤¾à¤® नहीं मिल पाता, यह सच है कि कई कलाकारों को निखारने में जिगà¥à¤¯à¤¾à¤¸à¥ जी की वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿à¤—त मेहनत थी, उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने न जाने कितने कलाकारों को लोक से ढूंढकर उनà¥à¤¹à¥‡à¤‚ मंच पà¥à¤°à¤¦à¤¾à¤¨ कर लोकपà¥à¤°à¤¿à¤¯à¤¤à¤¾ पà¥à¤°à¤¦à¤¾à¤¨ की और वह खà¥à¤¦ गà¥à¤®à¤¨à¤¾à¤® रहे।
लेखक – शà¥à¤°à¥€ चारॠतिवारी
जिजà¥à¤žà¤¾à¤¸à¥ जी को नमन, वाकई उनà¥à¤¹à¥‹à¤‚ने वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿à¤—त रà¥à¤šà¤¿ लेकर कई कलाकारों को निखारा और à¤à¤• नई पहचान दी। आपने उनको याद किया, अचà¥à¤›à¤¾ लगा।
सच तो यह है कि अगर जिगà¥à¤¯à¤¾à¤¸à¥ जी उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤¯à¤£ कारà¥à¤¯à¤•à¥à¤°à¤® को वà¥à¤¯à¤•à¥à¤¤à¤¿à¤—त रà¥à¤ª से रà¥à¤šà¤¿ लेकर नहीं बनाते तो कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ और गढवाल के कई नामचीन गायक, गीतकार, जनकवि आज à¤à¥€ गà¥à¤®à¤¨à¤¾à¤® ही रहते। जिसमें बहà¥à¤¤ बड़े-बड़े नाम शामिल हैं, वाकई जो जिगà¥à¤¯à¤¾à¤¸à¥ जी ने किया वह अतà¥à¤²à¤¨à¥€à¤¯ है, मेरी विनमà¥à¤° शà¥à¤°à¤¦à¥à¤§à¤¾à¤‚जलि।