उत्तम सिंह सामन्त (जिन्हें अंग्रेज अधिकारियों द्वारा क्षत्रिय कहा गया था) ग्राम उड़ई, देवलथल, जनपद पिथौरागढ़ के रहने वाले थे। इनका जन्म १९०८ में हुआ था। द्वितीय विश्व युद्ध का सूरमा, अपनी श्रेणी का अकेला राजभक्त, युद्ध क्षेत्र में अपूर्व शौर्य प्रदर्शन के लिये “मार्शल क्रास” और “मिलेट्री क्रास इन वार” सम्मान से सम्मानित। १६ अप्रैल, १९४४ को कोहिमा का ऎतिहासिक युद्ध समाप्त हुआ और २७ मई, १९४५ को प्रकाशित अंग्रेजी सरकार के गजट में सूबेदार उत्तम सिंह क्षत्रिय की जोरदार तारीफ की गई और उन्हें “मार्शल क्रास” से सम्मानित किया गया। राजस्थान रायफल्स के राजपूत सैनिकों ने इनके सम्मान में निम्न पंक्तियों को युद्ध भूमि में लड़ाई का मजमून बनाया- “लक्ष्मीबाई की कहां राख है, सिर से उसे लगा लें हम, उत्तम सिंह का कहां क्रोध है, गात रक्त गरमा लें हम” द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हिटलर की मृत्यु के बाद अखिल विश्व में अपनी हूकुमत की इच्छा रखने वाले जापान ने भारतीय सीमा तक घेर ली थी। यह खबर पाते ही आसाम रायफल्स के कमांडिंग आफीसर ने सूबेदार उत्तम सिंग के नेतृत्व में १६ वीं प्लाटून आपू पहाड़ी पर भेज दी। २ अप्रैल, १९४४ को उत्तम सिंह अपनी प्लाटून लेकर आराधूरा नामक टीले पर पहुंचे। जापानी सेना मिनिस्टर हिल की तरफ आगे बढ़ रही थी, यहीं पर सूबेदार उत्तम सिंह ने जापानी टुकड़ी को अपने कब्जे में ले लिया। इस आपरेशन में जापानी सेना के १५ जवान मारे गये, हमले में जापानी कमाण्डर तराकोने भाग निकला। हैड क्वार्टर लौटते ही इन्हें जापान अधिकृत कोकीटीला और टेनिस ग्राउण्ड जाने का हुक्म हुआ, इस पूरे क्षेत्र पर जापानी सेना का कब्जा था। यहीं पर शहीदों की याद में अंग्रेज बादशाह जार्ज पंचम ने दुनिया की सबसे बड़ी वार सिमेट्री बनवाई थी। इसी वार सिमेट्री के पास उत्तम सिंह ने सिपाही अमर बहादुर थापा को साथ लेकर जापानी सेना के ओ०पी० को धराशाई किया था। फलस्वरुप १६१ इण्डियन इन्फेन्ट्री ब्रिगेड की सारी यूनिटें आगे बढ़ सकीं। आठ घंटॆ के भयंकर युद्ध के बाद जापानी सेना मोर्चा छोड़कर भाग गई और कोकोटीला पर ब्रिटिश सेना का कब्जा जो गया। किन्तु आगे जेल हिल के पास उत्तम सिंह को दुश्मन की गोलियों ने घायल कर दिया, इनका सारा शरीर छलनी हो गया, इनके शरीर को दुश्मनों ने संगीनों से घोंप डाला। शिलांग मिलेट्री हास्पिटल में इनके शरीर से १२ गोलियां निकाली गई। इसी बहादुरी के सम्मान स्वरुप इन्हें “मार्शल क्रास” से सम्मानित किया गया।
छह महीने के इलाज के बाद सूबेदार उत्तम सिंह को फिर से युद्ध क्षेत्र में जाने का हुक्म हुआ। कोहिमा से १६१ इण्डियन इन्फैन्ट्री ने कूच कर सामरा तथा होमलिन में पड़ाव डाल रखा था। उधर यू रिवर के पास १९ इण्डियन डिवीजन का कब्जा था, लेकिन ब्रह्मपुत्र और इरावदी नदी के पार जापानी सैनिकों का कब्जा था। उत्तम सिंह अक्टूबर १९४४ में चिनमिन दरिया पार कर साइपू पहुंचे तो कर्नल स्टेनली ने इन्हें इरावदी नदी पार करने का हुक्म दिया, नाव से जब ये नदी पार कर रहे थे तो दुश्मन ने इन पर हमला बोल दिया, लेकिन अपने बुलन्द हौसले के बल पर सूबेदार उत्तम सिंह नदी पार पहुंच गये, लेकिन दुश्मनों ने इन्हें फिर से घेर लिया। रात के अन्धेरे का फायदा उठाकर जब ये लोग चमू पहुंचे तो यहां इन्हें सूचना मिली कि आसाम रायफल्स के कई जवान और कर्नल बोन जापानियों के हाथों मारे गये हैं और शेष बटालियनें भी वापस जा चुकी हैं। आखिर फरवरी, १९४५ में ये लोग सेबू के डिवीजन हैड क्वार्टर पहुंचे, मांडले पर १५,४ और ३३ ब्रिटिश कोर का घेरा था। चिनमिन तथा इरावदी नदी के बीच जनरल मोहन सिंह के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज भी वहां पर लड़ रही थी, उत्तम सिंह इस इलाके में महीनों गश्त करते रहे, इसी दौरान उन्होंने जापानियों पर हमला कर जापान द्वारा निर्मित लड़ाई का महत्वपूर्ण नक्शा अपने कब्जे में ले लिया। उसी नक्शे के आधार पर इन्होंने जापान पर हमला कर दिया और उसे तबाह कर दिया। ११ अगस्त, १९४५ को जापान ने आत्म समर्पण कर दिया, जापान की तबाही के बाद लार्ड माउण्टबेटन ने मांडाले पर यूनियन जैक लहराया। इस कुशल अभियान के बाद सूबेदार उत्तम सिंह को दिल्ली में वायसराय लार्ड बेथल ने “मिलेट्री क्रास इन वार” से दोबारा सम्मानित किया। जूनियर होते हुये भी इन्हें सूबेदार मेजर बना दिया गया। इस पद पर यह १९६४ तक रहे। १९६४ में इन्हें भारत के राष्ट्रपति डा० एस० राधाकृष्णन का प्रमुख ए०डी०सी० बनाया गया, अनपढ़ होते हुये भी इन्हें कम्पनी कमाण्डर का पद दिया गया। २६ नवम्बर, १९६८ को ३९ सालों की शौर्य से भरी सराहनीय सैन्य सेवा के बाद इन्होंने अवकाश ग्रहण कर लिया। सेवा निवृत्त होने के बाद यह अपने पैतृक गांव उड़ई, देवलथल आ गये और १० साल तक ग्राम सभा के सभापति रहे। अपनी जिन्दगी भर उत्तमों में उत्तम रहे उत्तम सिंह राष्ट्र के लिये गौरव रहे। इसके अतिरिक्त वह अपने गांव के साथ ही देवलथल के विकास के लिये समर्पित रहे। उन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों के लिये आसाम राईफल्स में विशेष भर्ती के कैम्प देवलथल में ही लगवाये और आसाम राईफल्स के सेवानिवृत्त सैनिकों और उनके परिवार की सहायता वह मृत्यु पर्यन्त करते रहे। देवलथल क्षेत्र में आज भी उनका नाम बेहद सम्मान के साथ लिया जाता है, आज की पीढी उन्हें मेजर बू के नाम से जानती है और उनकी याद को अक्षुण्ण रखने के लिये देवलथल बाजार में उनके आवास पर स्थानीय लोगों ने उनके नाम पर एक पुस्तकालय भी स्थापित किया है। दिनांक 19 दिसम्बर, 1999 को उनका देहावसान हो गया।
Great Leader, Brave soldier and true son of Mother India as well as Home town Dewalthal.
The nation will always Salute you.
You are the Pillar and Pathfinder of Dewalthal.
People of Dewalthal never Forget You.
Jai Hind
मेजर बूबू को हम सब देवलथल वासियों का नमन, वह हमारा गौरव थे।