उत्तराखण्ड के पहाड़ में पहले खेलों के लिये पर्याप्त साधन नहीं थे, बच्चे स्थानीय संसाधनों पर खेल बनाकर खेला करते थे, जो आज प्रचलित नहीं हैं। आज कम्प्यूटर और स्मार्ट फोन के युग में यह खेल कहीं खो से गये हैं, लेकिन खेलों में भी पहाड़ की स्थानीयता बनी रही है, इस लेख से माध्यम से कुछ पुराने खेल याद किये जा रहे हैं।
बाघ-बकरी यह उत्तराखण्ड का काफी प्रचलित खेल है, हालांकि इन खेलों से अब नई पीढी परिचित नहीं है। इसमें मैदान या किसी पत्थर पर एक त्रिभुजाकार आकृति उकेरी जाती है और एक बाघ और तीन बकरियों से यह खेल खेला जाता है। बाघ त्रिभुज के ऊपर यानि जंगल में रहता है और बकरियां त्रिभुज के बाद एक गोठ में, इसमें बाघ और बकरी एक-एक घर बढ़ती हैं और यदि बाघ ने तीनों बकरियां खा लीं तो उसे विजेता मान लिया जाता है { मुख्यतः इसमें तीन घर एक लाइन में होते हैं, माना सबसे ऊपर वाले घर में बाघ है और बीच में बकरी और सामने एक घर खाली है तो बाघ को बकरी के ऊपर से कूदाकर खाली घर में रखा जाता है और माना जाता है कि बाघ ने बकरी खा ली}
अगर तीनों बकरियों ने मिलकर बाघ को बीच में फंसा लिया और बाघ के पास आगे बढ़ने के लिये कोई घर खाली नहीं है तो बकरी वाले खिलाड़ी को विजेता माना जाता है।
लुकचुप्पी। लुकचुप्पी (इस खेल को हिन्दी में छुपन्छुपाई और अंग्रेजी में HIDE & SEEK कहा जाता है) में कई लोग शामिल हो सकते हैं और इसमें सभी खिलाड़ियों को छिपना होता है और एक खिलाड़ी उन सभी को खोजता है। उसे “चोर” कहा जाता था, यदि वह सभी को खोज नहीं पाता है तो फिर से उसे चोर बनना पड़ता है। दूसरे खिलाड़ी को देख लेने पर वह “आईस-पाईस” कहता है, जिस खिलाड़ी को चोर द्वारा सबसे पहले देख लिया जाये, उसे अगली बार चोर बनकर सबको ढूंढना पड़ता है। सबसे पहले चोर बनने के लिये एक गीत बोला जाता है, उस गीत के एक शब्द को एक खिलाड़ी पर गिना जाता है और जिस खिलाड़ी पर गीत समाप्त होता है, उसे ही सबसे पहले चोर बनना होता था।
हम इस गीत का प्रयोग करते थे- “अक्कड़-बक्कड़ बम्बे बौ, अस्सी-नब्बे पूरे सौ, सौ में लागा तागा, चोर निकल कर भागा” जिस पर भागा शब्द आया, वही चोर……!
घुच्ची-GUCHEE घुच्ची उत्तराखण्ड के ग्रामीण क्षेत्र में खेला जाने वाला सबसे प्रचलित खेल है, हालांकि बुजुर्गवार इस खेल को खेलने से हमेशा रोकते-टोकते हैं। क्योंकि यह एक छोटा जुआ सा भी है, आइये जानते हैं इस खेल के बारे में- इस खेल को दो या उससे अधिक लोग भी खेल सकते हैं, घुच्ची खेलने के लिये सबसे पहले एक छोटा सा गढढा बनाया जाता है, जिसे पिल कहा जाता है, उससे १ मीटर की दूरी पर एक लाइन खीची जाती है। सभी खिलाड़ियों को खेलने के लिये एक-एक सिक्के की जरुरत होती है, इस लाइन पर खड़े होकर पहला खिलाड़ी सभी के सिक्कों को एक साथ पिल की ओर फेंकता है और जो भी सिक्का पिल में चला जाता है, वह उसका हो जाता है, उसके बाद प्रतिद्वन्दी खिलाड़ी जिस सिक्के पर मारने को कहे, (अड्डू-एक गोल पत्थर के टुकड़े से) यदि वह उस सिक्के पर मार लेता है तो वह सिक्का उसका हो जाता है और अगर नहीं मार पाता है तो वह हार जाता है, अर्थात उसका सिक्का प्रतिद्वन्दी ले लेता है और उसे खेलने के लिये दूसरे सिक्के की आवश्यकता होती है।
ठिणी-दाबुली THINI-DABULI यह गुल्ली डंडा का उत्तराखण्डी वर्जन है, इसमें एक ठिणी बनाई जाती है, जो लकड़ी की बनी होती है और इसके दोनों छोर नुकीले होते हैं, दाबुली भी लकड़ी से बनाई जाती है और इसका निचला छोर थोड़ा छिला होता है। किसी चौरस मैदान में एक छोटा सा गढ़्ढा बनाया जाता है और सभी खिलाड़ी सर्वमान्य तरीके से पहले खिलाड़ी को चुन लेते हैं। पहला खिलाड़ी ठिणी को गढ़्ढे के ऊपर रखकर दाबुली से उसे उछालता है, अगर उसके द्वारा उछाली गई ठिणी किसी अन्य खिलाड़ी द्वारा कैच कर ली जाती है तो वह आउट हो जाता है। अगर कोई ठिणी को पकड़ नहीं पाता खिलाड़ी अपनी दाबुली को गढ्ढे के ऊपर रख देता है और प्रतिद्वन्दी खिलाड़ी ठिणी को दाबुली के ऊपर फेंकने का प्रयास करता है। अगर ठिणी दाबुली के ऊपर गिरती है तो खिलाड़ी आऊट, अन्यथा खिलाड़ी गढ्ढे से ठिणी तक की दूरी को दाबुली से नापता है, जितनी दाबुली, उतने की प्वाइंट…..इस खेल के कई अन्य नियम भी हैं, जो मैं भूल रहा हूं, फाउल होने पर भी खिलाड़ी को अतिरिक्त मौका दिया जाता है, जिसमें वह ठिणी को ऊपर-ऊपर ही उछालता है और जितनी बार उछाल ले, उतने प्वाइंट और उसे मिलते हैं।
और भी कुछ था, झार्रो, बांछो, सेमल्या, सिल्टो
गिरा – कुमाऊं की हॉकी हॉकी भारत का गौरव हुवा करती थी. ध्यान चाँद को हॉकी का जादूगर कहा जाता था. आज हाकी की दुर्दशा हो चुकी है. आंखिर हॉकी की इश दसा के लिए कौन जिम्मेदार है? पहले हॉकी घर घर मैं खेली जाती थी. रानीखेत के गावों मैं हॉकी खेलने का अलग अंदाज़ था’ हॉकी बनाने के लिए पेड़ की ऐसी टहनी को काटा जाता था जो छड़ी की आकार की हो. यह उल्टी लाठी के समान होती थी. इसे हॉकी के रूप मैं प्रयोग मैं लाया जाता था. घिंघारू की जड़ की हॉकी उत्तम मानी जाती थी. कपड़े की सिलाई कर उसे बौल का स्वरुप दिया जाता था. कुछ लोग बांस की जड़ की बाल बनाते थे. उत्तरायनी के दिन मकर संक्रांति को इसका फाइनल खेला जाता था. विजेता को इनाम मिलता था. खेल समाप्ति के बाद बौल तथा हॉकी को फैंक दिया जाता था. मान्यता थी की ऐसा न करने वाले को पित्त रोग हो जायेगा. मैदान कितना बड़ा या छोटा हो इसकी सीमा नहीं थी. खिलाडियोँ की भी सीमा नहीं थी. १०-१२ या ७-८ लोग गिरा का खेल खेलते थे . आज भी गिरा का मेला चनुली सरपट मन्दिर जो के घट्टी के पास है, चमर्खान के मेले के समापन के दिन गिरी का खेल खेला जाता है. इसके पश्चात् बसंत पंचमी तक गिल्ली डंडा खेला जाता है.
एक और खेल जो गिरा की ही तरह होता था उसका नाम है सिमंटाई या सत्पत्थारी. इसमें सात पत्थरों से विकिट बनाया जाता था. कपड़े की बौल से विकेट गिराना होता था. विकेट कीपर ही खिलाड़ी को बौल मारकर आउट करता था. आज से सब खेल लगभग समाप्त हो चुके हैं. यदि हांकी को पुनर्जीवित करना है तो इन खेलों को भी पुनर्जीवित करना होगा
गुट्टी/पांछि/दाणि यह मुख्यतः महिलाओं का खेल है, इस खेल को पांच छोटे-छोटे पत्थरों से खेला जाता है, इस खेल को पत्थर उछाल-उछाल कर खेला जाता है। जिसमें से चार पत्थर हाथ में रहते हैं और एक नीचे, जो ऎसा नहीं कर पाता या जिससे पत्थर गिर जाते हैं, वह हार जाती है। इसमें पांच दाणि (छोटे छोटे सुडौल पत्त्थर) होती है. पहले पाचों को नीचे गिराया जाता है. फिर एके पत्थर को ऊपर उछाल कर उसके नीचे गिरने से पहले एक पत्थर हाथ में उठाया जाता है और उछाले गये पत्थर को कैच कर लिया जाता है. यदि पत्थर गिर गया तो आउट. इसी प्रकार सभी चार पत्थर उठाये जाते है. फिर यही प्रक्रिया एक साथ दो , तीन और चार पत्थरों को उठाने के लिये भी की जाती है.
इसके बाद आता है कोठा. इसमें बांये हाथ को जमीन में रख के कोठरी सी बनाते हैं. सारे पत्थरों को नीचे गिरा लेते हैं. फिर एक पत्थर को ऊपर उछाल कर सारे पत्त्थर एक एक कर कोठे में डालने होते हैं.
फिर कुत्ता . ..अंगूठे और पहली दूसरी ऊंगली को एक दूसरे पर चढ़ाकर बीच की जगह में से एक एक कर सारे पत्थर निकाल लेते है..
लास्ट में होता है मुट्ठा..
अड्डू अड्डू भी किशोरियों का ही खेल है, पत्थर के एक गोलाकार टुकड़े को अड्डू कहा जाता है और मैदान में आठ वर्गाकार खाने बनाये जाते हैं। खिलाड़ी को इस अड्डू को एक पांव पर उछल-उछल कर सभी खानों में पार कराना होता है। जो ऎसा नहीं कर पाता वह हारता है और जो सभी खानों पर अड्डू को एक पैर पर उछलकर पार करा लेता है, उसे विजेता घोषित कर दिया जाता है।
सिमनटाई इस खेल में सात पत्थर एक के ऊपर एक करके रखे जाते थे और इसको एक कपड़े की बाल से गिराना होता था, इस बीच विपक्षी टीम बाल से दूसरे खिलाड़ी को मारती, जिस पर बाल पडती, वह आऊट और फिर यदि टीम इन सात पत्थरों को फिर से एक के ऊपर एक रख लेती थी, उसी को विजयी माना जाता था।
ढड्यालूं की बन्दूक-ढढ्यालू एक कंटीला पौधा होता है, इसकी पतली डालियां अन्दर से खोखली बनाई जा सकती हैं. इस खोखली नाल में ढढ्यालू के बीज या कागज आदि डाल कर पीछे से एक डण्डे से इसे धकेलने पर यह तेजी से बाहर आता है-आवाज के साथ. यह कतई घातक नही होता, एक हल्का-फुल्का मनोरंजन भर है. अब शायद ही यह खेल कोई खेलता होगा.
इसके अलावा मुर्गा झपट, पकड़चुप्पी, अंटी आदि कई खेल खेले जाते थे, किसी को याद हों तो कृपया कमेण्ट में प्रतीक्षा रहेगी।
एक फुरफुरी होता था, भांग के सूखे डंठल में कागज का पंखा सा बनाकर किलमोड़े के कांटे से फिक्स किया जाता था और दौडने में वह पंखा चलता था।
ऐसे ही प्याज के शुरुआती पौधों से पीपरीबाजा भी बनता था।
oh this made me nostalgic