By मà¥à¤¯à¤° पहाड़ on March 1, 2017
पà¥à¤¸à¥à¤¤à¤• का आवरण चितà¥à¤°
होली à¤à¤• à¤à¤¸à¤¾ तà¥à¤¯à¥‹à¤¹à¤¾à¤° है, जिसने बदलते दौर में अपना सà¥à¤µà¤°à¥‚प à¤à¥€ बदला है और उसका विसà¥à¤¤à¤¾à¤° à¤à¥€ हà¥à¤† है। हिंदी पटà¥à¤Ÿà¥€ में यह सैकड़ों वरà¥à¤·à¥‹à¤‚ से रंग-गà¥à¤²à¤¾à¤², मसà¥à¤¤à¥€ और पकवानों का तà¥à¤¯à¥‹à¤¹à¤¾à¤° रहा है, लेकिन पूरà¥à¤µà¥€ उतà¥à¤¤à¤° पà¥à¤°à¤¦à¥‡à¤¶ और बिहार में होली का वह गà¥à¤°à¤¾à¤®à¥€à¤£-गंवई रूप अब कमोबेश लà¥à¤ªà¥à¤¤ हो रहा है। यहां के ठेठगà¥à¤°à¤¾à¤®à¥€à¤£ इलाकों में जोगीड़ा सारा रारा और दà¥à¤µà¤¿à¤…रà¥à¤¥à¥€ संवादों वाले गीत के साथ मांसाहार और छककर शराब पीने का à¤à¥€ रिवाज है। यह आकसà¥à¤®à¤¿à¤• नहीं है कि देसी शराब पीने से होने वाली मौतें जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾à¤¤à¤° इसी समय सामने आती हैं। लेकिन इसी इलाके के शहरी कà¥à¤·à¥‡à¤¤à¥à¤° में होली धीरे-धीरे बदल रही है। पूड़ी और पà¥à¤† (आटे-मैदे को पान‌ी में धोलकर घी या तेल में तलकर बनाया जानेवाला पकवान) की जगह गà¥à¤à¤¿à¤¯à¤¾ लेने लगी है। टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया के पà¥à¤°à¤¸à¤¾à¤° के इस दौर में हिंदी पटà¥à¤Ÿà¥€ के शहरी इलाके में रंग बदलती होली बहà¥à¤¤ कà¥à¤› कहती है। होली का à¤à¤• दूसरा वैषà¥à¤£à¤µ सà¥à¤µà¤°à¥‚प ‘दोल’ के रूप में पूरà¥à¤µà¥€ à¤à¤¾à¤°à¤¤-खासकर पशà¥à¤šà¤¿à¤® बंगाल, असम और मणिपà¥à¤° में है। हिंदी पटà¥à¤Ÿà¥€ में होली के दिन मांसाहार की परंपरा के विपरीत यह वैषà¥à¤£à¤µ होली, जो मणिपà¥à¤° के गोविंदजी मंदिर में कई दिनों तक मनाई जाती है, à¤à¤¾à¤°à¤¤ की विविधता का ही उदाहरण है। लेकिन यह आशà¥à¤šà¤°à¥à¤¯ से कम नहीं है कि जिस उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड में होली की परंपरा बहà¥à¤¤ पà¥à¤°à¤¾à¤šà¥€à¤¨ नहीं है और टिहरी के राजदरबार में à¤à¥€ मैदान से ही आई, वहां उसकी शासà¥à¤¤à¥à¤°à¥€à¤¯à¤¤à¤¾ न केवल अकà¥à¤·à¥à¤£à¥à¤£ है,बलà¥à¤•à¤¿ पहाड़ ने इसमें नठआयाम जोड़े हैं। उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड का संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿ सचेतन इलाका कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ और गढ़वाल-दोनों जगह पवितà¥à¤° पौधे की डाल लाकर लगाने, पूजने, चीर बांधने-बांटने,बैठी-खड़ी होले का फरà¥à¤• निà¤à¤¾à¤¨à¥‡ और महिलाओं का सà¥à¤µà¤¾à¤‚ग निà¤à¤¾à¤¨à¥‡ आदि अनेक à¤à¤¸à¥€ चीजें हैं, जो मैदानी होली में नहीं दिखाई देतीं। शासà¥à¤¤à¥à¤°à¥€à¤¯à¤¤à¤¾ और गीतों की विविधता उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड की होली को ‌विशिषà¥à¤Ÿ बनाती है। यहां होली गायन की अवधि सबसे लंबी होती है और पिथौरागढ़ में तो रामनवमी तक गाई जाती है। ये होली गीत निरà¥à¤µà¤¾à¤£, à¤à¤•à¥à¤¤à¤¿, शृंगार और वियोग पà¥à¤°à¤§à¤¾à¤¨ होते हैं। उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड के सामाजिक-समसामयिक आंदोलनों में होली गीतों ने बेहद महतà¥à¤µà¤ªà¥‚रà¥à¤£ à¤à¥‚मिका निà¤à¤¾à¤ˆ है, जिसमें गà¥à¤®à¤¾à¤¨à¥€, गोरà¥à¤¦à¤¾, चारà¥à¤šà¤‚दà¥à¤° पांडेय, गिरà¥à¤¦à¤¾ आदि का उलà¥à¤²à¥‡à¤–नीय योगदान रहा है। दरअसल उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड के होली गीतों ने धीरे-धीरे यहां के सà¥à¤¥à¤¾à¤¨à¥€à¤¯ ततà¥à¤µà¥‹à¤‚ का समावेश किया। होली गीतों में à¤à¥€ कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ में शासà¥à¤¤à¥à¤°à¥€à¤¯à¤¤à¤¾ पर जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ जोर रहा। अलà¥à¤®à¥‹à¤¡à¤¼à¤¾ से न केवल इसकी शà¥à¤°à¥à¤†à¤¤ हà¥à¤ˆ, बलà¥à¤•à¤¿ यहां के हà¥à¤•à¥à¤•à¤¾ कà¥à¤²à¤¬ जैसे संगठनों की इसमें à¤à¤¤à¤¿à¤¹à¤¾à¤¸à¤¿à¤• à¤à¥‚मिका पà¥à¤°à¤®à¤¾à¤£à¤¿à¤¤ है। जबकि गढ़वाल के नृतà¥à¤¯à¤—ीतों में बà¥à¤°à¤œà¤®à¤‚डल के गीतों का गढ़वालीकरण जà¥à¤¯à¤¾à¤¦à¤¾ हà¥à¤† है। उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड के होली गीतों की और कई विशेषताà¤à¤‚ धà¥à¤¯à¤¾à¤¨ देने लायक है। जैसे,यहां के होली गीतों में शिव का आवाहन है, जो मैदानी होली में नहीं है, कामदेव को à¤à¤¸à¥à¤® कर देने वाले पà¥à¤°à¤¸à¤‚ग में शà¥à¤°à¥à¤†à¤¤à¥€ दौर में à¤à¤²à¥‡ रहा हो। वह तो आशà¥à¤šà¤°à¥à¤¯ का विषय है। महिलाओं दà¥à¤µà¤¾à¤°à¤¾ यहां होली गायन की अलग से जो सà¥à¤µà¤¾à¤‚ग परंपरा है, वह पà¥à¤°à¥à¤·à¥‹à¤‚ के सामूहिक पलायन के कारण कदाचित अधिक मजबूत हà¥à¤ˆ है, जिसमें विरह,रोमांस और पीड़ा है। à¤à¤¸à¥‡ ही पहाड़ की होली में सरà¥à¤µà¤§à¤°à¥à¤®à¤¸à¤®à¤à¤¾à¤µ के चितà¥à¤° à¤à¥€ मिलते हैं। अलà¥à¤®à¥‹à¤¡à¤¼à¤¾ में होली गायन की जिस शासà¥à¤¤à¥à¤°à¥€à¤¯ परंपरा ने जड़ पकड़ी, उसमें मà¥à¤¸à¥à¤²à¤¿à¤® गायकों का योगदान था। पौड़ी में होली गायन कà¤à¥€ बड़े याकूब के नेतृतà¥à¤µ में होता था, तो 1935 में शà¥à¤°à¥€à¤¨à¤—र की होली बैठकों में ईसाइयों के à¤à¤¾à¤— लेने का जिकà¥à¤° है। कहते हैं, कà¤à¥€ तवायफें à¤à¥€ होली गायन में समà¥à¤®à¤¿à¤²à¤¿à¤¤ होती थीं। इसमें कोई शक नहीं कि समय के अंतराल में परà¥à¤µ-तà¥à¤¯à¥‹à¤¹à¤¾à¤° और उसे मनाठजाने के तरीके बदल जाते हैं। होली की शà¥à¤°à¥à¤†à¤¤ ‌जिस मदनोतà¥à¤¸à¤µ से मानी जाती है, आज की होली उसकी परंपराओं को à¤à¥€ à¤à¤²à¤¾ कहां बरकरार रख पाई है!यह मानने का à¤à¥€ कोई कारण नहीं कि मैदान में होली का मौजूदा रूप अशिषà¥à¤Ÿ ही है। बलà¥à¤•â€Œà¤¿ कोई तà¥à¤¯à¥‹à¤¹à¤¾à¤° आज अगर गà¥à¤°à¤¾à¤®à¥€à¤£ जीवन की सबसे ईमानदार पà¥à¤°à¤¤à¤¿à¤šà¥à¤›à¤µà¤¿ है, तो वह होली ही है। लेकिन उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड में होली की संसà¥à¤•à¥ƒâ€Œà¤¤à¤¿ को जिस तरह बचाठरखा गया है, वह गौरतलब जरूर है। वैसे तो इस पà¥à¤¸à¥à¤¤à¤• के सारे ही लेख मूलà¥à¤¯à¤µà¤¾à¤¨ हैं, लेकिन गिरà¥à¤¦à¤¾, नवीन जोशी, शेर सिंह पांगती, डॉ. योगेंदà¥à¤° धसà¥à¤®à¤¾à¤¨à¤¾ आदि के लेख लाजवाब हैं। देवेंदà¥à¤° मेवाड़ी की बहà¥à¤šà¤°à¥à¤šà¤¿à¤¤ किताब ‘मेरी यादों का पहाड़’ से लिया गया अंश उलà¥à¤²à¥‡à¤–नीय है। चंदà¥à¤°à¤¶à¥‡à¤–र तिवारी ने जिस परिशà¥à¤°à¤® से इन लेखों को संगà¥à¤°à¤¹ कर उनका संपादन किया, वह उनकी उसी शोध वृतà¥à¤¤à¤¿ का उदाहरण है, जिसका परिचय वह इससे पहले ‘कà¥à¤®à¤¾à¤Šà¤‚ अंचल में रामलीला की परंपरा’ और ‘हिमालय के गांवों में’ जैसी पà¥à¤¸à¥à¤¤à¤•à¥‹à¤‚ में दे चà¥à¤•à¥‡ हैं। इस पà¥à¤¸à¥à¤¤à¤• के पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤¨ में दून पà¥à¤¸à¥à¤•à¤¾à¤²à¤¯ à¤à¤µà¤‚ शोध केंदà¥à¤° तथा इसके निदेशक बी के जोशी के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती। कà¥à¤² मिलाकर, लोकजीवन के पà¥à¤°à¤¤â€Œà¤¿ दिलचसà¥à¤ªà¥€ रखने वाले लोगों और शोधारà¥à¤¥à¤¿à¤¯à¥‹à¤‚ के लिठयह à¤à¤• कीमती पà¥à¤¸à¥à¤¤à¤• है।
कलà¥à¤²à¥‹à¤² चकà¥à¤°à¤µà¤°à¥à¤¤à¥€ की समीकà¥à¤·à¤¾
 उतà¥à¤¤à¤°à¤¾à¤–ंड-होली के लोकरंग, संपादक-चंदà¥à¤°à¤¶à¥‡à¤–र तिवारी, पà¥à¤°à¤•à¤¾à¤¶à¤•-दून पà¥à¤¸à¥à¤¤à¤•à¤¾à¤²à¤¯ à¤à¤µà¤‚ शोध केंदà¥à¤°, देहरादून, समय साकà¥à¤·à¥à¤¯, देहरादून, मूलà¥à¤¯-195 रà¥à¤ªà¤¯à¥‡à¥¤
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As a 13-yr old boy, in 1953, I had the opportunity to listen to the Holi songs sung by the village elders. During the Holi season, villagers would gather in the evening in someone’s house, turn by turn, and sing the songs. I used to copy down them in a notebook which I kept for quite some time. Unforgettable time.
bahut hi acchha aur Srahaniya lekh likha hai . esme ak do kumaouni holi bh add ki hoti to aur achha lagata .