राष्ट्रीय आन्दोलन में भी उत्तराखण्डी महिलाओं का अविस्मरणीय योगदान रहा है। इनमें एक बेमिसाल नाम स्व० श्रीमती बिश्नी देवी शाह का है। १२ अक्टूबर, १९०२ को बागेश्वर में जन्मी बिश्नी देवी मात्र कक्षा ४ तक ही शिक्षित थीं। एक ओर वैधव्य और दूसरी ओर सामाजिक कुरीतियों से बीच जकड़ी बिश्नी देवी राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से जुड़ी और आजादी के लिये लगातार संघर्षरत रहीं। इनका राष्ट्र प्रेम १९ वर्ष की आयु में राष्ट्रीय प्रेमयुक्त गीत गायन से शुरु हुआ। कुमाऊंनी कवि गौर्दा के गीतों को महिलायें रात्रि जागरण में गाया करती थी, जिससे स्त्रियों में राष्ट्रीय भावना का संचार हुआ। अल्मोड़ा में नन्दा देवी के मन्दिर में होने वाली सभाओं में भाग लेने और स्वदेशी प्रचार कार्यों में बिश्नी देवी काम करने लगीं। आन्दोलनकारियों को महिलायें प्रोत्साहित करती थीं, जेल जाते समय सम्मानित कर पूजा करती, आरती उतारतीं और फूल चढ़ाया करती थीं।
१९२१ से १९३० के बीच महिलाओं में जागृति व्यापक होती गयी, १९३० तक ये स्त्रियां सीधे आन्दोलन में भाग लेने लगीं। तब अल्मोड़ा ही नहीं, रामनगर और नैनीताल की महिलाओं में भी जागृति आने लगी थी। २५ मई, १९३० को अल्मोड़ा नगर पालिका में राष्ट्रीय ध्वज फहराने का निश्चय हुआ। स्वयं सेवकों का एक जुलूस, जिसमें महिलायें भी शामिल थीं, को गोरखा सैनिकों द्वारा रोका गया। इसमें मोहनलाल जोशी तथा शांतिलाल त्रिवेदी पर हमला हुआ और वे लोग घायल हुये। तब बिश्नी देवी शाह, दुर्गा देवी पन्त, तुलसी देवी रावत, भक्तिदेवी त्रिवेदी आदि के नेतृत्व में महिलाओं ने संगठन बनाया। कुन्ती देवी वर्मा, मंगला देवी पाण्डे, भागीरथी देवी, जीवन्ती देवी तथा रेवती देवी की मदद के लिये बद्रीदत्त पाण्डे और देवीदत्त पन्त अल्मोड़ा के कुछ साथियो सहित वहां आये। इससे महिलाओं का साहस बढ़ा। अंततः वह झंडारोहण करने में सफल हुईं, दिसम्बर, १९३० में बिश्नी देवी शाह को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। जेल के कष्टप्रद जीवन से वे बिल्कुल भी विचलित नहीं हुईं, वहां पर वे प्रचलित गीत की पंक्तियां दोहराती थी-
“जेल ना समझो बिरादर, जेल जाने के लिये,
यह कृष्ण मन्दिर है प्रसाद पाने के लिये।”
जेल से रिहाई के बाद बिश्नी देवी जी खादी के प्रचार में जुट गईं। उस समय अल्मोड़ा में खादी की दुकान नहीं थी, चरखा १० रुपये में मिलता था। उन्होंने चरखे का मूल्य घटवाकर ५ रुपये करवाया और घर-घर जाकर महिलाओं को दिलवाया, उन्हें संगठित कर चरखा कातना सिखाया। उनका कार्यक्षेत्र अल्मोड़ा से बाहर भी बढ़ने लगा, २ फरवरी, १९३१ को बागेश्वर में महिलाओं का एक जुलूस निकला तो बिश्नी देवी ने उन्हें बधाई दी और सेरा दुर्ग (बागेश्वर) में आधी ना्ली जमीन और ५० रुपये दान में दिये। वे आन्दोलनकारियों के लिये छुपकर धन जुटाने, सामग्री पहुंचाने तथा पत्रवाहक का कार्य भी करतीं थीं। राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रियता के कारण ७ जुलाई, १९३३ में उन्हें गिरफ्तार कर फतेहगढ़ जेल भेज दिया गया, उन्हें ९ माह की सजा और २०० रुपये जुर्माना हुआ। जुर्माना न देने पर सजा और बढ़ाई गई, वहां से रिहा होने के बाद १९३४ में बागेश्वर मेले में धारा १४४ लगी होने के बावजूद उन्होंने स्वदेशी प्रदर्शनी करवाई। डिप्टी कमिश्नर ट्रेल के आतंक में भी बिश्नी देवी शाह का कार्य विधिवत चलता रहा। इसी मध्य रानीखेत में हरगोबिन्द पन्त के सभापतित्व में कांग्रेस सदस्यों की एक सभा हुई, जिसमें कार्यकारिणी में महिला सदस्य के रुप में इन्हें निर्वाचित किया गया। १० से १५जनवरी, १९३५ में बागेश्वर में लगाई गई प्रदर्शनी हेतु उन्हें प्रथम श्रेणी का प्रमाण पत्र मिला। अल्मोड़ा नन्दा देवी के मैदान में और फिर २३ जुलाई, १९३५ को अल्मोड़ा के मोतिया धारे के समीप नये कांग्रेस भवन में बिश्नी देवी शाह तथा विजय लक्ष्मी पंडित ने झंडा फहराया। विजय लक्ष्मी पंडित बिश्नी देवी के कार्यों से अत्यन्त प्रभावित हुईं।
26 फरवरी, १९४० को नन्दा देवी के प्रांगण में १० बजे फिर झंडारोहण किया तथा १९४०-४१ को व्यक्तिगत सत्याग्रह में भाग लिया। उन्होंने अनेक शराब की दुकानों पर धरना दिया और विदेशी वस्त्रों की होलियां जलाई। १७ अप्रैल, १९४० को वे नन्दा देवी मन्दिर के समीप खुलने वाले कताई केन्द्र की संचालिका बनीं, १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन में ब्रिटिश सरकार को बिश्नी देवी ने आन्दोलनकारी महिला की भूमिका का एहसास कराया। पंडित जवाहरलाल नेहरु और आचार्य नरेन्द्र देव की अल्मोड़ा जेल से रिहाई के समय बिश्नी देवी ने उनकी अगवानी की। नन्दा देवी प्रांगण में १५ अगस्त, १९४७ को स्वतंत्रता दिवस के दिन बिश्नी देवी शाह राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को पकड़कर नारे लगातीं हुई एक मील लम्बे जुलूस की शोभायात्रा बढ़ा रहीं थीं।
बिश्नी देवी सामान्य परिवार में जन्मी अल्प शिक्षित महिला थीं। विनय, सहिष्णुता, मृदु व्यवहार, अनुशासन आदि गुणों के कारण वे कांग्रेस की सफल कार्यकर्ता बनीं। वे स्थानीय और राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में सदा से ही रहीं। सामाजिक बंधनों तथा रुढिवादिता के विरुद्ध आगे बढ़ते हुए संघर्ष करना उनकी चारित्रिक विशेषता थी। उनके बारे में लोग कहते थे-
“खद्दर की ही धोती पहने, और खद्दर का ही कुर्ता,
एक हाथ में खद्दर का झोला और दूजे में सुराज्यी तिरंगा।”
१० अक्टूबर, १९३० को दैनिक अमृत बाजार पत्रिका ने उनकी कार्यकुशलता के बारे में लिखा: “समस्त उत्तर प्रदेश में अल्मोड़ा और नैनीताल आगे आये हैं, विशेषकर अल्मोड़ा। उसमें बिश्नी देवी की भूमिका सर्वप्रथम है। बिश्नी देवी अदम्य उत्साह और साहस से युक्त महिला हैं। अपने वैधव्य की रिक्तता को उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़कर पूरा कर दिया।” महिला कार्यकर्ता होने के कारण स्वाधीनता के बाद उन्हें भी कोई महत्व नहीं मिला, उनका अपना कोई न था। आर्थिक अभाव में उनका अन्तिम समय अत्यन्त कष्टपूर्ण स्थिति में बीता। वर्ष १९७४ में ७३ वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।
उत्तराखण्ड के रचनात्मक युवाओं के संगठन म्यर पहाड़ द्वारा इनको सम्मान देते हुये वर्ष २०१० के उत्तरायणी मेले के अवसर पर इनके पोस्टर का विमोचन किया गया।
धाद द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ आयोजन-एक से साभार टंकित
Though I am living in Delhi for the last thirty years and my whole family is here but heart and soul is always with the MERA PYARA GARHWAL, In this connection I have writeen so many articles in Navbharat Times web sight. if you are interested you can see, JAB EK AJANAVI NE ‘, NANDADEVI, MAAN KO GAON JAANA THA ETC. with regards.
[…] श्यामलाल गंगोला, मोहन सिंह मेहता, बिश्नी देबी साह, कुंती देवी, तुलसी देवी के अलावा […]
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Raja Haru Hit Ke bare mai v bahut kam milta hai aap logo se request hai ki raja haruhit ke bare mai v kuch likha …
ye v salt ke Raja the aaj v inkan mandir gujud kot mai……
Kha kre ki uttrakhaand k krantikari ki pension lg jaye
Inke alawa or kitni ladies thi jo freedom fighter this national level pe
Behtareen