A festival of pastoralists and agriculturist hilljatra came to Pithoragarh valley from West Nepal and at once found fevour in Kumaour and Bajethi and in its modified form as Hiran-chital at Kanalichina, Dewalthal and Askot. It is associated with ropai (paddy transplantation) and allied agricultural
activities of rainy season. In was introduced in Soar by the Chand king ‘Kuru’ and is, in fact, an elaborate masquerade under the open sky where in various pastoral and agricultural activities are represented. The folk legends based on the victory of traditional deities over the demon are enacted in a fantastic masquerade replete with the chiming of bells and hymns in the local dialects supported by loud instrumental music and the booming dhool nagara (drums).
Here is an article by Shabnam khan, student in G.P.G.C Pithoragarh provided by our senior member Mr. Rajen Sawant.
पिथोरागढ़ जिले में “हिलजातरा” महोत्सव:
पूरे विश्व में मेले और त्यौहार सामाजिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण अंग हैं. यह सभी जगह अलग-अलग ढंग से मनाये जाते हैं. इन परंपरागत मेलों और त्योहारों का सम्बन्ध धार्मिक विश्वासों, लोकमतों, स्थानीय रीति रिवाजों, बदलते मौसमों, फसलों आदि से है. हमारे देश में अनेक धर्म और उनसे जुड़े केवल विभिन्न उत्सव ही नहीं हैं बल्कि अपनी विविध साँस्कृतिक परम्पराओं के कारण उन्हें अलग-अलग ढंग से मनाया भी जाता है. इससे प्रकार कुमाऊँ, पिथौरागढ़ जनपद में कुछ उत्सव समारोह पूर्वक मनाये जाते हैं, हिलजात्रा उनमें से एक है.
जनपद पिथौरागढ़ में गौरा-महेश्वर पर्व के आठ दिन बाद प्रतिवर्ष हिलजात्रा का आयोजन होता है. यह उत्सव भादो माह में मनाया जाता है. मुखौटा नृत्य-नाटिका के रूप में मनाये जाने वाले इस महोत्सव का कुख्य पात्र लखिया भूत, महादेव शिव का सबसे प्रिय गण, बीरभद्र माना जाता है. प्रतिवर्ष इस तिथि पर लखिया भूत के आर्शीवाद को मंगल और खुशहाली का प्रतीक मन जाता है.
हिलजातरा उत्सव पूरी तरह कृषि से सम्बन्धित माना गया है. हिलजातरा की शुरुआत नेपाल से हुई थी. किंवदंती है कि नेपाल के राजा ने चार महर भाईयों की वीरता से खुश होकर यह जातरा (जो नेपाल में इन्द्र जात्रा के रूप में मनाई जाती है) भेंट स्वरुप कुमाऊं के चार महर भईयौं, कुंवर सिंह महर, चैहज सिंह महर, चंचल सिंह महर और जाख सिंह महर को प्रदान की थी. इस जात्रा के साथ-साथ इस महोत्सव में काम आने वाले बिभिन्न मुखौटे तथा हल इत्यादि वस्तुएं भी प्रदान की थीं. जिसे लेकर ये चारों महर भाई कुमाऊं में स्थित पिथौरागढ़ लौट आये और सर्वप्रथम कुमौड़ गाँव में ‘हलजातरा’ के नाम से उत्सव मनाया. तब से लेकर आज तक यह प्रतिवर्ष भादो मास में गौरा महोत्सव पर्व के आठ दिन बाद मनाई जाती है. कालान्तर में इसे हिलजातरा नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। इस उत्सव का आरम्भ और समापन बड़े हर्ष और उल्लास के साथ किया जाता है. कुमौड़ के अतिरिक्त भी जिले के कई अन्य गांवों, यथा- अस्कोट और देवलथल में भी इस पर्व को मनाया जता है किन्तु लखिया भूत के पात्र का प्रदर्शन केवल कुमौड़ गाँव और देवलथल के उड़ई गांव में ही किया जाता है.
सुबह से ही हिलजातरा में स्वांग भरने वाले अपने लकडी के मुखोटों को सजाने – चमकाने मैं लगे रहते हैं. दोपहर में कुमौड़ गांव में डेढ़ सौ साल पुराने झूले के पास दुकानें सजनी शुरू हो जाती हैं. सर्वप्रथम गाँव के सामने मुखिया आदि लाल झंडों को लेकर गाजे-बाजे व नगाडों के साथ कोट (ग्यारहवीं शताब्दी में बना स्थान जहाँ पर महर थोकदारों ने अपना आवास बनाया था) के चक्कर लगते हैं. फिर घुड़सवार का स्वान भर कर एक ब्यक्ति काठ, घास-फूस के घोडे में आता है और अपने करतब दिखता है फिर स्वांग दिखने का सिलसिला शुरू हो जाता है.
हुक्का-चिलम पीते हुए मछुवारे, शानदार बैलों की जोडियाँ, छोटा बल्द , बड़ा बल्द, अड़ियल बैल (जो हल में जोतने पर लेट जाता है), हिरन चीतल, ढोल नगाडे, हुडका, मजीरा, खड़ताल अर घंटी की संगीत लहरी के साथ नृत्य करती नृत्यांगानाएं, कमर में खुकुरी और हाथ में दंड लिए रंग-बिरंगे वेश में पुरुष, धान की रोपाई का स्वांग करते महिलायें ये सब मिल कर एक बहुत ही आकर्षक दृश्य प्रस्तुत करते हैं जिसे लोग मंत्रमुग्ध हो निहारते हैं.
अचानक ही गावं से तेज नगाडों की आवाज आने लगती है. यह संकेत है हिलजात्रा के प्रमुख पात्र ‘लखिया भूत’ के आने का. सभी पात्र इधर-उधर पंक्तियौं में बैठ जाते हैं और मैदान खाली कर दिया जाता है. तब हाथों में काला चंवर लिए काली पोशाक में, गले में रुद्राक्ष तथा कमर में रस्सी बांधे लखिया भूत प्रकट होता है. सभी लोग लखिया भूत की पूजा अर्चना करते हैं और घर-परिवार, गाँव की खुशहाली के लिए आशीर्वाद मांगते हैं. लखिया भूत सब को आशीर्वाद देकर वापस चला जाता है. फिर प्रत्येक पात्र धीरे-धीरे वापस जाते हैं. भले ही आज का वर्तमान दौर संचार क्रांति का दौर बन चुका हो, किन्तु लोगों में अपनी सांस्कृतिक विरासत को बचाने की भरपूर ललक दिखी देती है. कम से कम गाँव में मनाये जाने इन उत्सवों से तो यही प्रतीत होता है. इससे लोगों के बीच अटूट धार्मिक विश्वास तो पैदा होता ही है साथ ही लोक कलाओं का दूसरी पीढि़यों में आदान-प्रदान भी होता है।
For more Information about Hill-jatra, pl. visit उत्तराखण्ड की हिलजात्रा
अहाऽऽऽऽऽ, दिगौ ला हिलजातरा….याद दिला दी महाराज, बचपन में मैं तो बनने वाला हुआ मरकव्वा बल्द। क्योंकि जिससे दुश्मनी हो, उसी को मार कर दिल हल्का किया जा सकता था। ही ही
वैसे इस पर्व में थोड़ा सा पुट चीन के ड्रेगन डांस का भी आता है। हिरन का मुखौटा पहने कलाकार ड्रेगन डांस भी करते दिखाई देते हैं।
Pitoragarh Hiljatra ki jankari kafi rochak our achhi lagi ……………………………..Thanks
ye yatra dekh kar bahut maza aaya oe gyan bhi parapt hua thanks sir
jai lkhiya baba
iss bar mujhe b Hiljatra dekhne ka sobhagya mila bahut acha laga dekhke ..itne bhid ko mene pehli bar dekha ..
हिलजातरा मेरे गाँव में भी खूब धूम – धाम से मनाई जाती हे i बचपन में पहाड़ छोड़ दिया था इतनी जानकारी नहीं थी. धन्यबाद