Uttarakhand Encyclopedia : उत्तराखण्ड ज्ञानकोष अपना उत्तराखण्ड आइये, जाने, समझें और जुडें अपने पहाड़ से, अपने उत्तराखण्ड से मेरा पहाड़ फोरम तब नहीं तो अब गैरसैंण, अब नहीं तो कब गैरसैंण राजधानी से कम मंजूर नहीं

Hill Women: New Ideas

लेखक : उमाशंकर मिश्र

प्रकृति की गोद में बसे उत्तराखंड की वादियों में जनजीवन कठिन ही नहीं अद्भुत भी है, लोग सीमित संसाधनों के बूते जीवन यापन की राह तलाश में जुटे रहते हैं। लेकिन अब उत्तराखंड भी पलायन की मार से बच नहीं पाया है. ऐसे में महिलाओं के हौसले की दाद देनी होगी, जिनके उद्यमीय प्रयासों को देखकर उम्मीद की जा सकती है कि सागर में फेंके गए कंकड़ से भी लहर पैदा होती है.

pahad_women पिथौरागढ़ जैसे पर्वतीय इलाके में जीवन यापन पहाड़ पर चढ़ाई करने की तरह है। कहने को तो हिमालय की गोद में बसे इस जिले में प्राकृतिक सुंदरता बिखरी पड़ी है, लेकिन पहाड़ी लोगों के जीवन यापन की तरफ कम ही लोगों का ध्यान जाता है। लम्बे समय तक पिथौरागढ़ जैसे सुदूर क्षेत्रों तक पहुंच पाना आसान नहीं था, आज भी अधिकतर इलाकों में सड़को का जाल बिछ जाने के बावजूद वहां यात्रा करना आसान नहीं है। वस्तुत: पहाड़ी इलाकों में परिवहन की इसी समस्या के चलते स्थानीय लोगों को जीविकोपार्जन के लिए बेहद जद्दोज़हद करनी पड़ती है। कठिन परिवहन और बाजार से दूरी के चलते कई बार उद्यमीय कौशल का पर्याप्त प्रतिफल लोगों को नहीं मिल पाता। जिले की पूरी अर्थव्यवस्था मुख्यत: कृषि आधारित है, लेकिन पहाड़ पर खेती करना आसान काम नहीं है। अपनी मेहनत के बूते लोग पहाड़ों पर ही सीढ़ीदार खेत बनाकर विभिन्न प्रकार की फसलों की खेती करते रहे हैं। लेकिन ग्लोबल वार्मिंग एवं वनों के अंधाधुंध दोहन का असर इस पर्वतीय इलाके पर भी पड़ा है। हिमालय की तराई में होने के बावजूद पिथौरागढ़ को न केवल सिंचाई बल्कि पीने के पानी के लिए भी तरसना पड़ रहा है। दूसरी ओर वनों के कट जाने से पहाड़ों पर वर्षा जल संचित न होकर व्यर्थ बह जाता है। मैदानी इलाकों की तरह यहां पम्पसेट लगाकर सिंचाई करना संभव नहीं है और पूरी खेती बरसात पर निर्भर करती है, लेकिन गत दो वर्षों से बरसात नहीं होने से स्थानीय किसानों के माथे पर चिंता की लकीरें लगातार बढ़ती जा रही हैं।

लेकिन माधवी दिगारी जैसी महिलाओं ने इस पर्यावरणीय विपत्ति के समय भी अपने कौशल के बूते उपलब्ध संसाधनों से परिवार के जीवन यापन के लिए राह खोज ली है। पिथौरागढ़ जिले के कनालीछीना ब्लॉक के सन्न गांव की माधवी वैसे तो सामान्य गृहणियों की तरह ही हैं, लेकिन बरसात की आंखमिचौली को देखते हुए उन्होंने संतुलित तापमान एवं नमी को बरकरार रखने के लिए दो साल पहले ही अपने खेतों मे पॉलीहाऊस का निर्माण कर लिया था। जिसमें फिलहाल वे खीरा, ककड़ी, धनिया, गोभी, भिण्डी, टमाटर जैसी मौसमी सिब्जयों की खेती कर रही हैं। माधवी के पास कुल 70 नाली (पहाड़ी इलाकों में जमीन की माप नाली होती है) जमीन है, जिसमें से महज 20 नाली जमीन खेती योग्य है। इस पर वे और उनका परिवार मिलकर धान, मडुवा, भट्ट (सोयाबीन), सरसों, मसूर एवं जौ की खेती करते हैं। माधवी कहती हैं कि बारिश न होने से फसलें सूख रही हैं और पारंपरिक खेती खत्म हो रही है, जिससे लोग पलायन को विवश हो रहे हैं। वे बताती हैं कि-`ऊंची-नीची जमीन होने से खाद्यान्न फसलों का उत्पादन नाममात्र का होता है, जिससे छ: महीने भी परिवार का भी गुजारा नहीं चलता। इन समस्याओं के चलते माधवी ने सब्जी की खेती के महत्व को काफी पहले ही समझ लिया था। माधवी बताती हैं कि-`वैसे तो हम सालों से सब्जी की खेती कर रहे थे, लेकिन कभी अधिक बरसात से फसल सड़ जाती थी, तो कभी कम बरसात से फसलें मुरझा जाती थी। लेकिन पॉलीहाऊस का उपयोग करने से अब आप तापमान संतुलित रहता है, जिससे फसलें तेजी से बढ़ती हैं और समान्य से कम से में तैयार हो जाती हैं।´

फसल उत्पादन के बाद उपयुक्त बाजार की उपलब्धता उत्पादक के लिए हमेशा महत्वपूर्ण होती है, जिससे कि किसान को अपनी उपज का सही मूल्य प्राप्त हो सके। बाजार के उतार-चढ़ाव और तात्कालिक मांग की जानकारी किसान के लिए मददगार साबित होती है। माधवी और उनके परिवार के सदस्य इस बात को भली भांति जानते हैं और वे हमेशा मार्किट  डिमांड का ध्यान रखते हैं। मार्किटिंग के काम में माधवी के देवर जमन सिंह दिगारी उनका सहयोग करते हैं और बाजार जाकर समय समय पर विभिन्न सब्जियों के भाव और उनकी मांग का निरीक्षण करते रहते हैं और मांग और मुनाफे का अंदाज लगाकर संबंधित फसल की खेती करते हैं। हाल ही में उन्होंने दो क्यारियों में बने पॉलीहाऊसों में धनिये की खेती की है। जमन सिंह बताते हैं कि-`जब बाजार में धनिये की कमी देखी तो इसका कारण दुकानदारों से पूछा, जवाब में उन्होंने बताया कि तेज गर्मी में धनिया सूख रहा है, इसलिए पैदावार नहीं हो रही है।´ बस फिर क्या था जमन सिंह और माधवी ने मिलकर अपने दो पॉलीहाऊसों में 50 रुपये के धनिये के बीज लाकर बो दिये। कुछ ही समय में धनिया तैयार हो गया और थोड़ा थोड़ा करके जमन सिंह इसे पास के बाजार कनालीछीना में ले जाकर अच्छे दामों में बेच आते हैं। वे बताते हैं कि अभी तक सिर्फ धनिये से एक हजार रुपये की आमदनी हो चुकी है। इसके अलावा टमाटर, कद्दू और खीरा भी एक पॉलीहाऊस में लगा हुआ है। हर तीसरे दिन इनमें फल तैयार हो जाते हैं, जिसे कनालीछीना ले जाकर बेच दिया जाता है। इस तरह से गर्मी और सूखे समय में भी हर तीसरे दिन लगभग तीन सौ से साढ़े तीन सौ रुपये की आमदनी माधवी और जमन सिंह को हो जाती है। जमन सिंह बताते हैं कि हमने पिछले छ: महीनों के दौरान 10 हजार रुपये से अधिक बचत की है। बकौल जमन सिंह-`पहले घर वाले कहते थे, कि जीवन बीमा करा लो, तो मैं सोचता कि आखिर इसकी किस्त मैं कैसे भर पाऊंगा, लेकिन आज 250 रुपये की तीन आर.डी. बैंक में करा रखी है। इसके अलावा पानी की व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए करीब 7 हजार रुपये उन्होंने पाईप लाईन के निर्माण पर भी खर्च किए हैं।´ घर में दुधारू पशु रखने से जहां उन्हें दूध मिल जाता है, वहीं खेतों के लिए गोबर की खाद भी उपलब्ध हो जाती है। इसके अलावा उन्होंने हिमालयन सेवा समिति के प्रतिनिधी कैलाश पांडेय की सलाह पर वर्मी कम्पोस्ट पिट का निर्माण कराया है, जिसमें बनने वाली केंचुआ खाद को सब्जियों की खेती में उपयोग करते हैं।

फिलहाल माधवी ने 4 क्यारियों में करीब 4 हजार रुपये की लागत से पॉलीहाऊस लगाया है। जमन सिंह कहते हैं कि-`घर वालों ने कहा कि पॉलीहाऊस में लगाकर पन्नी खराब मत कर, लेकिन मैंने उनकी बात नहीं मानी और आज हालात यह है कि आसापास के लोग यहां आकर चुपके से झांककर हमारे पॉलीहाऊस को उत्सुकतावश देखते हैं।´ हाल ही में जमनसिंह ने आसपास के कुछ अन्य लोगों को भी पॉलीहाऊस बनाने में मदद की है। वे कहते हैं कि यदि आदमी को जानकारी है तो एक साथ दो फसलें आसानी से उगाई जा सकती हैं। सितंबर के महीने में वे पालक, धनिया, मेथी, समसूर, प्याज, लहसुन, अदरक इत्यादि की खेती करेंगे। जमन सिंह सीमित बाजार और परिवहन की समस्या की बात करते हुए कहते हैं कि-`हम इससे भी ज्यादा उत्पादन कर सकते हैं, लेकिन मार्किट नहीं है।´ गर्मी में सूखे के अलावा सदिर्यों में पड़ने वाला पाला भी फसलों के लिए नुकसानदेय होता है। जमन सिंह मौसम के इन प्रभावों से हमेशा सतर्क रहते हैं। गैर सरकारी संस्था `हिमालयन सेवा समिति´ माधवी जैसे उद्यमियों को प्रोत्साहन एवं तकनीकी सहयोग प्रदान करती है। संस्था से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता प्रवीण जोशी कहते हैं कि-`वर्तमान मौसमी परिस्थितियों को देखते हुए पहाड़ी इलाकों के किसानों के लिए एक व्यापक नीति के त्वरित क्रियान्वन की आवश्यकता है।´इसी तरह ग्राम पंचायत डूंगरी की तुलसी मेहता आम ग्रामीण महिलाओं की तरह है संकोची स्वाभाव की हैं, लेकिन परिवार की गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने पति राजेश मेहता का समय समय पर न केवल मार्गदर्शन किया, बल्कि उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम भी किया। उबड़-खाबड़ रास्तों और पहाड़ी खेतों की पगडंडियों और उनके बीच से होकर कल-कल करके बहती धाराओं के बीच से होते हुए हम पहाड़ के एक टीले पर बनाए गए तुलसी के पॉल्ट्री फार्म में जा पहुंचे। लेकिन इतनी चढ़ाई करने के बाद हम हांफने लगे थे। वहां पहुंचने पर हमने देखा कि हरे-भरे पेड़ों और झाड़ियों के बीच इंसानी बसावट से काफी दूर बांस को चीरकर दो सुंदर सी झोपड़ियों का निर्माण किया गया है। दिन में काम करते समय तनिक विश्राम और भोजन पानी के लिए एक झोपड़ी का उपयोग तुलसी और उनके पति राजेश करते हैं। जबकि दूसरी अपेक्षाकृत बड़ी झोपड़ी उनके पाल्ट्री की 120 मुर्गियों के लिए है। हालांकि तुलसी और उनके पति ने मिलकर पहले इसी झोपड़ी में दो लाख चालीस हजार रुपये कर्ज लेकर डेयरी का काम शुरु किया था। लेकिन पहाड़ी इलाका होने से दूध को बाजार तक पहुंचाना टेढ़ी खीर साबित हुआ और अंतत: हारकर इस काम को बंद करना पड़ा। एक बार तो इन पति पित्न की कमर टूट गई, लेकिन इन्होंने हिम्मत नहीं हारी। इस प्रयोग के असफल होने के बाद एक सबक तुलसी को मिल गया था, सो उन्होंने कुछ ऐसा करने की सोची जिसके परिवहन में बहुत अधिक परेशानी न हो। इस बात को ध्यान में रखते हुए तुलसी ने अपने पति को सब्जियों की खेती करने की बात कही। लेकिन अनुपजाऊ जमीन होने के कारण सबसे पहले उन्हें 10 नाली जमीन पत्थरों और झाड़ियों को काटकर खेती योग्य बनाने मे मशक्कत करनी पड़ी। सिंचाई के अभाव और जंगली जानवरों द्वारा फसलों को नुक्सान पहुंचाये जाने की बात को ध्यान में रखकर तुलसी और उनके पति राजेश ने मिलकर जमीन के नीचे विकसित होने वाली सब्जियों; जैसे-आलू, अदरक, लहसुन, प्याज इत्यादि की खेती करने की सोची। पहली बार उन्होंने आलू और लहसुन की खेती की, लेकिन फसल खराब हो जाने से एक बार फिर उन्हें घाटा उठाना पड़ा। लेकिन उन्होंने सब्जियों की खेती नहीं छोड़ी। लेकिन यह बात भी समझ आ गई थी,  अकेले सब्जियों की खेती से काम नहीं चलने वाला। तुलसी ने इसी बात को ध्यान में रखते हुए पति को पॉल्ट्री फार्म भी शुरु करने की सलाह दी। फिर क्या था, राजेश आनन फानन में दर्जनों मुर्गियों के बच्चे खरीद लाये। कुछ ही महीनों में मुर्गियां तैयार हो गई। जिसमें कुछ को तो पहले ही राजेश ने बेचकर उनके चारे का खर्च निकाल लिया। इसके बावजूद आज भी 120 मुर्गियां तुलसी और राजेश द्वारा बनाये गए उनके बाड़े में रहती हैं। इन मुर्गियों से प्रतिदिन करीब 80 अंडे प्राप्त हो जाते हैं, जिसे ले जाकर राजेश पास की कनालीछीना मार्किट में 4 रुपये प्रति अंडे की दर से बेच देते हैं। इसके अलावा अपने खेत में उन्होंने धनिया, टमाटर, कद्दू, खीरा, ककड़ी जैसी सब्जियों की भी खेती की हुई है। इससे भी प्रतिदिन करीब 100 रुपये की आमदनी हो जाती है। इसके अलावा उन्होंने घर पर एक छोटी सी दुकान भी खोली है, जिसकी देखरेख उनके माता पिता करते हैं। कुल मिलाकर फिलहाल राजेश और तुलसी मिलकर दो से तीन हजार रुपये प्रतिमाह बचा लेते हैं, जो सुदूर गांव के किसी परिवार के लिए एक बड़ी बात कही जा सकती है।

आज तुलसी और राजेश मेहता पर करीब 3 लाख रुपये का कर्ज है, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी है। राजेश दूरदराज के गांव में रहकर भी बेकरी, मत्सय पालन, मौन पालन जैसे प्रयोग करके ग्रामीणों को दिखाना चाहते हैं। जिससे कि लोगों में निरंतर बढ़ रही पलायन की प्रवृत्ति को रोका जा सके और लोग अपने गांव में रहकर ही व्यावसाय करके जीवन यापन कर सकें। मौसम की मार को देखते हुए फिलहाल राजेश सब्जियों की खेती के लिए पॉलीहाऊस का निर्माण करना चाहते हैं। लेकिन आर्थिक तंगी उनके आड़े आ रही है। सरकारी अमले को कोसते हुए राजेश बताते हैं कि सरकार पॉलीहाऊस के निर्माण के लिए 30 हजार रुपये तक अनुदान देती है। लेकिन इसका लाभ जरूरतमंदों को न देकर अनियमित बंदरबांट की जा रही है और लोग खेती करने के बजाय इन पॉलीहाऊसों में भूसा रखते हैं। प्रवीण जोशी ऐसी अनियमितताओं पर खासी नराजगी जताते हैं और कहते हैं कि सरकार को ग्रामीणों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए शुरु की गई योजनाओं की पर्याप्त मॉनीटरिंग की आवश्यकता है, जिससे तुलसी और राजेश जैसे वास्तविक जरूरतमंदों को फायदा पहुंच सके।

तुलसी गांव में चलने वाले महिला स्वयं सहायता समूह की सदस्य भी हैं। हिमालयन सेवा समिति के आह्वान पर आज आसपास के दस गांवों महिलाएं प्रस्तावित कोऑपरेटिव डेयरी परियोजना शुरु करने के लिए एकत्रित हुई हैं और महिलाओं मिलकर डेयरी चलाने का निर्णय लिया है। अभी देखना बाकी है कि पहाड़ी महिलाओं की सफलता का यह सफर कितनी दूर तक जा पाता है।

उमाशंकर मिश्र/ साभार : विस्फोट

2 responses to “Hill Women: New Ideas”

  1. घिंघारु

    माधवी और तुलसी जैसी महिलाओं को राज्य सरकार द्वारा सहायता देकर और प्रोत्साहित करना चाहिये। इनका यह काम “पहाड़ में क्या रखा है?” कहने वालों के मुंह पर करारा तमाचा है। स्वरोजगार से पहाड़ के पलायन को रोका जा सकता है, सरकार की इस क्षेत्र में बहुत नीतियां हैं, लेकिन लोगों को मालूम नहीं है, इन लोगों को भी यह जानकारी ब्लाक नजदीक होने और इस क्षेत्र में इनकी रुचि से मिली होगी। लेकिन इसी ब्लाक में पीपली के नेपाल सीमा से लगे सुदूर गांव हैं, जहां इसकी पर्याप्त संभावना है। उत्तराखण्ड सरकार को यह ध्यान देना चाहिये कि मोटर हैड के किनारे बसे गांव ही उत्तराखण्ड नहीं है, उससे आगे भी दुनिया है। जहां आप वोट मांगते समय पहुंचते हैं?

  2. poonam kandpal

    Great and inspiring success stories.. God help those who help them shelves..I hope very soon tulsi and her husband would pay all their loan.. I agree that Government should look seriously in this matter and monitor all these policies so that they can keep track of all the benefits provided by them is reaching in needy hands …And I am proud of pahadi ladies who not even help their husband and in most of areas of our Pahad man does not earn money in fact only waste it in Drink and playing cards..while Ladies possess double responsibility of earning as well as managing home.I salute Pahadi ladies …

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