जिला पिथौरागढ़ की पूर्व दिशा में 36 किलोमीटर दूर काली नदी के किनारे झूलाघाट नाम का कस्बा है। काली नदी हमारे देश भारत और नेपाल के मध्य अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा का कार्य करती है। काली नदी के किनारे हमारे कस्बे को झूलाघाट कहते है। और काली नदी के पार नेपाल के कस्बे को जूलाघाट कहा जाता है। हमारे जिले पिथौरागढ़ के झूलाघाट कस्बे में हमारे देश की स्वतंत्रता से पूर्व, क्वीतड़ गाँव निवासी देव सिंह बिष्ट एक छोटी सी दुकान में घी का व्यवसाय करते थे। झूलाघाट में घी व्यवसाय करने से पूर्व, देव सिंह बिष्ट के पूर्वज नेपाल के जिला बैतड़ी के निवासी थे। बाद में नेपाल के जिला बैतड़ी से आकर पिथौरागढ़ के क्वीतड़ गाँव में बस गए थे। सन् 1906 में देव सिंह के घर क्वीतड़ में उनके पुत्र दान सिंह का जन्म हुवा था। दान सिंह बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। मात्र 12 वर्ष की कम आयु में लकड़़ी का व्यापार करने वाले एक ब्रिटिश व्यापारी के साथ वह म्यांमार चले गए थे। म्यांमार में दान सिंह ने लकड़ी के व्यवसाय करने का गहराई के साथ ज्ञान अर्जित कर लिया था। लकड़ी के व्यवासाय में दान सिंह ने इतनी कुशलता प्राप्त की, कि जो भविष्य में देश के “टिबंर किंग आफ इंडिया” की उपाधि से न्वाजे गये। म्यांमार से वापस पिथौरागढ़ आने के बाद दान सिंह अपने पिता के साथ घी के व्यापार में हाथ बंटाने लगे। किन्तु दान सिंह के मस्तिष्क में कुछ ओर व्यवसाय करने की उच्च सोच थी। तब तक घी के व्यवसाय में अच्छा लाभ अर्जित कर लिया था। अतः घी से अर्जित लाभ के धन को वह कही ओर अधिक लाभ के व्यवसाय में लगाना चाहते थे। देव सिंह ने अपने पुत्र दान सिंह के साथ मिलकर बेरीनाग में 2000 एकड़ का एक चाय का बगान एक ब्रिटिश कम्पनी से खरीद लिया। कम उम्र के दान सिंह ने चाय बगान का पूरा प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया था। उस समय विश्व के चाय बाजार में चीन का एकछत्र राज था। पूरे विश्व में चीन में उत्पादित अच्छी स्वादिष्ट चाय का बोल बाला था। अन्य देशों की चाय में वो जायका नही होता था। चीन की चाय तैयार करने में किस प्रकार की प्रक्रिया की जाती है, दान सिंह ने वह प्रक्रिया कुछ ही समय में प्राप्त करली थी। बेरीनाग की चाय के जायके की प्रसिद्धी दूर दूर तक फैलने लगी। अपने देश भारत में बेरीनाग की चाय लोकप्रिय हो गई थी इसके अतिरिक्त ब्रिटेन, चीन में भी बेरीनाग की चाय का डंका बजने लग गया था। इस सफलता का श्रेय युवा व्यवसायी दान सिंह की दूरदर्शी सोच व कुशल प्रबंधन को जाता है।
उस समय हमारे देश में अंग्रेजों का अधिकार था। हमारे पहाड़ में बेहद गरीबी थी, न तन के लिए ढ़कने के लिए पूरे कपड़े होते थे, न ही शिक्षा का अधिक विस्तार था। सामंतवादी व्यवस्था थी, जमींदारों के पास बेहिसाब भूमि होती थी, उनके पास ऐशो आराम के सभी साधन होते थे। आम गरीब आदमी फौज में भर्ती हो जाता था या अंग्रेजों की बंगलों में नौकर होते थे। उस गुलामी के दौर में पिथौरागढ़ का व्यक्ति, विश्व पटल में अपने परिश्रम के बलबूते लकड़ी के कारोबार के अलावा अन्य उद्योग जगत में नाम को दर्ज चुका था।चाय के सफल व्यवसाय के पश्चात दान सिंह बिष्ट ने सन् 1924 को नैनीताल के निकट ब्रिटिश इंडियन काॅपरेशन लिमिटेड नामक कम्पनी से शराब की भट्टी खरीद ली। दान सिंह बिष्ट ने यहाँ अपने पिता देव सिंह बिष्ट तथा अपने लिए बंगला, कार्यालय व कर्मचारियों के रहने के लिए आवासों का निर्माण किया। बाद में यह ईलाका ‘बिष्ट स्टेट’ नाम से जाना गया। इसी मध्य दान सिंह बिष्ट ने लकड़ी के व्यवसाय में ठेकेदारी आरंभ कर दी थी। लकड़ी के व्यवसाय में दान सिंह बिष्ट को “किंग आफ टिंबर” कहा जाने लगा। उन्होंने लकड़ी के व्यवसाय में नदियों के तीव्र बहाव का लाभ लेते हुए, लकड़ियों की बल्लियों को नदियों के तेज बहाव में एक स्थान से दूसरे स्थान में भेजने के कार्य का प्रचलन आरंभ किया था। अविभाजित भारत के जम्मू कश्मीर, पंजाब के लाहौर, पठानकोट से वजिराबाद तक संपूर्ण हिमालय क्षेत्र में दान सिंह बिष्ट की लकड़ी की बल्लियों की विशाल मंड़ियां होती थी। मंडियों के निकट स्वयं के रहने के लिए बंगला, कार्यालय व कर्मचारियों के लिए आवास होते थे। लकड़ी के ब्यापार में उस मालदार दान सिंह बिष्ट का स्थान देश में शिखर में स्थापित था। कश्मीर से लेकर बिहार व नेपाल तक मालदार दान सिंह बिष्ट ने अपना लकड़ी का व्यवसाय फैला दिया था। उनकी कंपनी में उत्तराखंड के अतिरिक्त देश के अन्य क्षेत्रों के लगभग 6000 लोगों को रोजगार मिला हुवा था।
दान सिंह बिष्ट मालदार ने उस समय जब धन की बहुत कमी रहती थी, तब उन्होंने पिथौरागढ़, टनकपुर, हल्द्वानी, नैनीताल और मेघालय, आसाम के साथ-साथ नेपाल के बर्दिया, काठमांडू में तक अपनी संपत्तियाँ अर्जित की थी। कुशाग्र बुद्धि के धनी दान सिंह बिष्ट के व्यक्त्वि के समक्ष अंगे्रज भी कायल थे। उनके निकट अंगे्रज मित्र, ब्रिटिश वास्तुकार लारी बेकर व उनकी पत्नी ने कई लेखों में उनकी उद्यमेशीलता का बखान किया है और अपने अभिन्न मित्र के रुप में उल्लेख किया है। ब्रिटिश काल के साहित्यकार एवम् महान शिकारी जिम कार्बेट दान सिंह बिष्ट मालदार के परम मित्रों में थे। डी.एस. बिष्ट एंड संस के कर्मचारी लकड़ी के व्यापार के सिलसिले में दूर दराज के गाँवों जंगलों में जाते रहते थे। उस समय दूर दराज के क्षेत्रों में नरभक्षी बाघों का बहुत अधिक आतंक होता था। नरभक्षी बाघों के कारण लोगों को हमेशा अपने प्राणों का भय बना रहता था। कंपनी के कर्मचारी शिकारी जिम कार्बेट तक नरभक्षी बाघों की सूचना देते थे।जिम कार्बेट बिना समय गवांए तुरंत उस स्थान में पहुँचकर नरभक्षी बाघ का शिकार कर उस बाघ का अंत कर देते थे। उन बाघों की खाल बिष्ट स्टेट, नैनिताल के बंगले में टांग दी जाती थी। नैनीताल के भाभर क्षेत्र में शिकार के लिए आने पर, जिम कार्बेट अक्सर मालदार दान सिंह बिष्ट जी के मेहमान होते थे।
स्वतंत्रता से पूर्व, अंग्रेजों के शासन के समय, रेल लाईन के लिए प्रयोग में आने वाले लकड़ी के स्लीपरों, की आपूर्ति मालदार दान सिंह बिष्ट की कम्पनी करती थी। जम्मू कश्मीर के जंगल हों या आसाम के जंगल, रेल लाईन के लिए प्रयुक्त स्लीपर मालदार दान सिंह बिष्ट की कम्पनी करती थी। उन्होंने कई स्थानों में कम्पनी की सुविधा के लिए जंगल और शहर के मध्य सड़कों का भी निर्माण किया। जिससे सरकार तथा आम जनता को भी सुविधा होने लगी थी। सन् 1945 में मुरादाबाद के राजा गजेन्द्र सिंह के उपर सरकार का बहुत अधिक कर्ज हो गया था। जिस कारण से वह कर्ज को चुका नही पा रहे थे। सरकार ने उनकी संपत्ति जब्त कर निलाम कर दी थी। उस जमीन को मालदार दान सिंह बिष्ट ने 2,35,000 रुपये में खरीद ली थी। नैनीताल में झील के किनारे मालदार दान सिंह बिष्ट ने शानदार बंगले बनाए थे। मालदार दान सिंह बिष्ट ने देश के अन्दर उद्योग जगत का साम्राज्य स्थापित किया था। उनका उद्योग का विस्तार देश की सीमा से बाहर भी फैलना आरंभ हो गया था। वह उद्योग जगत में एक बहुत बड़ी हस्ती तो थे ही, साथ ही वह परोपकार के क्षेत्र में भी पीछे नही रहते थे। मानव कल्याण के लिए उन्होंने अनेक विद्यालयों, चिकित्सालयों तथा खेल के मैंदानों का निर्माण किया था।
हमारा देश स्वतंत्र हो गया था। उस समय हमारे पर्वतीय क्षेत्र में शिक्षा की व्यवस्था अच्छी नही थी। विद्याालयों की बहुत कमी थी। विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा के लिए आगरा, बरेली या लखनऊ जाना पढ़ता था। साधन संपन्न परिवारों के बच्चे चले जाते थे, लेकिन आम आदमी का बच्चा कुशाग्र व होनहार होते हुए भी धन के अभाव में इन बड़े शहरों में नही जा पाता था। मालदार दान सिंह बिष्ट ने इस बात को ध्यान में रखते हुए सन् 1951 में नैनीताल वेलेजली गर्ल्स स्कूल को खरीद लिया था और कुछ नए भवनों का निर्माण कर इसको अपने पिता स्व. देव सिंह बिष्ट के नाम से एक काॅलेज के रुप में परिवर्तित कर दिया। उस समय नैनिताल के बीच में उन्होंने 12 एकड़ से अधिक भूमी तथा पाँच लाख रुपया नकद राशि उक्त काॅलेज के लिए दान में दी थी।
उस समय उस कालेज के लिए दान दी गयी भूमि का मूल्य 15 लाख से अधिक था। उस समय ब्रिटिश मुद्रा पौंड और भारत के रुपए का मूल्य एक समान था। मालदार दान सिंह बिष्ट द्वारा अपने स्व. पिता के नाम से स्थापित, ठाकुर देव सिंह बिष्ट काॅलेज, कुमाउ विश्वविद्याालय का मुख्य परिसर महाविद्याालय बना।
मालदार दान सिंह बिष्ट ने पिथौरागढ़ में अपनी माँ व पिता के नाम से सरस्वती देव सिंह उच्चतर माध्यमिक विद्यालय का निर्माण किया। विद्यालयी शिक्षा के लिए इस दूर सीमावर्ती क्षेत्र में अपनी तरह का यह प्रथम प्रयास था। वर्तमान में इस काॅलेज को देव सिंह इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। मालदार दान सिंह बिष्ट ने पिथौरागढ़ में अपने माता-पिता के नाम पर विद्यालय का निर्माण करने के पश्चात विद्यालय से सटे एक भूखंड को खरीद कर उसमें एक खेल के मैदान का निर्माण किया गया। इस मैदान का नाम उन्होंने अपने पिता देव सिंह बिष्ट के नाम पर रखा। जो आज देव सिंह मैदान के नाम से प्रसिद्ध है। पिथौरागढ़ के देव सिंह मैदान मैदान से अनेक अतंर्राष्ट्रीय स्तर की खेल प्रतिभाओं का जन्म हुवा है। मालदार दान सिंह बिष्ट ने अपनी माता के नाम पर एक विद्याार्थियों को छात्रवृती देने के लिए श्रीमती सरस्वती बिष्ट छात्रवृति बंदोबस्ती ट्रस्ट भी बनाया। यह ट्रस्ट आज भी अपने लक्ष्य में कार्य कर रहा है। यह ट्रस्ट जिला पिथौरागढ़ में दिया जाने वाला एकमात्र ट्रस्ट है। यह सब नाम अनुरुप मालदार दान सिंह बिष्ट की दानशीलता व परोपकार के कारण हुवा। यह एक शैक्षिक ट्रस्ट है, जो द्वितीय विश्वयुद्ध में पिथौरागढ़ के शहीद हुए सैनिकों के पुत्र व पुत्रियों को छात्रवृति प्रदान करता है। मालदार दान सिंह बिष्ट की बेरीनाग चैकोरी में चाय के बगानों के अतिरिक्त विशाल भूभाग के स्वामी थे। सन् 1961 में एक एकड़ से अधिक भूमी में निर्मित एक भवन को एक पशु चिकित्सालय को दान में दे दिया था। बेरीनाग में विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा के लिए महाविद्यालय के निर्माण के लिए 30 एकड़ भूमी अपने भाई के नाम से दान में दी थी। बेरीनाग में विद्यालय, खेल के मैंदान, चिकित्सालयों, सरकारी कार्यालयों तथा वन विभाग के रैस्ट हाॅउस के लिए भूमी दान दी गयी थी।
मालदार दान सिंह बिष्ट जी द्वारा अनेक औषधालय भी बेरीनाग में खोले गए थे। इसके साथ ही उन्होंने अपने पुश्तैनी गाँव क्वितड़ में भी पीने के जल की व्यवस्था के साथ ही अन्य उपयोगी सुविधायें ग्राम वासियों को प्रदान की थी। मालदार दान सिंह बिष्ट की कम्पनी डी.एस. बिष्ट एंड संस ने सन् 1956 में अपने उद्योग को ओर अधिक गति देने के लिए ‘बिष्ट इंडस्ट्रियल कारपोरेशन लिमिटेड’ नाम से किच्छा में एक शुगर मिल आरंभ करने के लिए लाइसेंस लिया था। लगभग 2000 टन प्रतिदिन की क्षमता वाली यह मिल किसानों के हित में बहुत लाभकारी सिद्ध होने वाली थी। मालदार दान सिंह बिष्ट को स्वतंत्र भारत की सरकार से उम्मीद थी कि किच्छा की शुगर मिल के लिए मुर्शिदाबाद से लायी जा रही मशीनरी को किच्छा लाने के लिए सरकारी छूट मिल जाएगी। किन्तु हमारे स्वतंत्र देश के निति निर्माता नेताओं के कारण मालदार दान सिंह बिष्ट की उम्मीदों के उपर पानी फिर गया। जिस कार्य को मालदार दान सिंह बिष्ट आसान समझ रहे थे सरकार की विषम औद्योगिक नितियों के कारण वह कार्य असंभव हो गया था। कलकत्ता के बंदरगाह में जहाज में लदी, किच्छा शुगर मिल के लिए खरीदी मशीनरी को जहाज से नीचे उतरने नही दिया गया। स्वतंत्र भारत में विषम औद्योगिक नितियों के कारण मशीनरी के उपर भारी टैक्स लगा दिये गए। मालदार दान सिंह बिष्ट को इस मशीनरी को कर्ज के बोझ तले दबते हुए पुनः खरीदना पड़ा। मालदार दान सिंह बिष्ट एक दिन भी किच्छा की शुगर मिल को चला नही पाए। कर्ज के बोझ के चलते उनको इस शुगर मिल के शेयर बेचने पड़े। इस घटना के बाद मालदार दान सिंह बिष्ट तनाव में रहने लगे। जिस कारण वह बीमार रहने लगे।
मालदार दान सिंह बिष्ट की बीमार रहते हुए 10 सितंबर, सन् 1964 में मृत्यु हो गयी। कुमाउ के एक उभरते हुए उद्योगपति, मालदार दान सिंह बिष्ट, जिनका व्यापार देश के अतिरिक्त विदेश में, ब्राजिल तक में विस्तार लेने लग गया था। अपने परतंत्र देश में उन्होंने उद्योग जगत में अपना परचम लहराया। अंग्रेज सरकार भी उनकी व्यापार कौशलता को सम्मान देती थी। किन्तु स्वतंत्र भारत में विषम ओद्यागिक नितियों के कारण मालदार दान सिंह बिष्ट अवसाद में आ गए, जिस कारण वह बिमार हो गए थे। और सर्वत्र प्रकाश करते हुए अचानक अस्त हो गए। उनकी मृत्यु के पश्चात डी. एस. बिष्ट एंड संस का कार्यभार उनके कनिष्ठ भाई मोहन सिंह बिष्ट व उनके पुत्रों ने संभाला। मालदार दान सिंह बिष्ट की पुत्रियाँ उस समय कम आयु की थी। पुत्र उनका कोई नही था।
मालदार दान सिंह बिष्ट के मृत्यु के पश्चात व्यापारीक कौशलता के अभाव में उनके विशाल व्यापार साम्राज्य सिकुड़ता हुवा समाप्त होने लगा था। बेरीनाग व चौकोड़ी के चाय बगान अनिमियताओं के कारण अराजकता की भैंट चढ़ गए थे। अनियमिताओं के साथ-साथ बेरीनाग के इन चाय बगानों के नष्ट होने में सरकार की नीतियों ने विशेष भूमिका अदा की। बेरीनाग, चौकोड़ी व मुरादाबाद की सैकड़ों एकड़ भू्मि सरकार द्वारा जमींदारी उल्मूलन कानून के अंतर्गत अधिग्रहीत कर ली गयी थी। डी. एस. बिष्ट एंड संस कम्पनी कुशल व्यापारिक नेतृत्व के अभाव में लगातार मंदी की आगोश में चली गयी। कुमाऊं का एक उद्योगपति देश में एक नक्षत्र की भांती उद्योग जगत में चमका, अनेक लोगों को रोजगार देकर उनका कल्याण किया, विद्यालय, चिकित्सालय व खेल के मैदान बनवाए व अनेक प्रकार के परमार्थ के कार्य किये। लेकिन कुछ कुनीतियों के कारण वह नक्षत्र असमय ही अस्त हो गया।
लेखक- श्री प्रकाश चन्द्र पुनेठा। लेखक पिथौरागढ़ के निवासी हैं एवं भारतीय सेना से अवकाश प्राप्त हैं तथा साहित्य और पठन पाठन में रुचि रखते हैं।